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________________ अनुमान-प्रमाण २२१ न्यायबिन्दुटीका में विस्तृत व्याख्या की है जिसका उपादान जैनदार्शनिक हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में प्रामाणिक रूप से किया है । अतः यहां हेमचन्द्र कृत बौद्ध व्याख्या के आधार पर धर्मकीर्त निरूपित रूप्यलक्षण का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। अनुमेये सत्त्वमेव निश्चितम्-अनुमेय धर्मी में हेतु का सत्त्व कहने से शब्द की नित्यता सिद्धि में चाक्षुषत्वादि हेतु असिद्ध हो जाते हैं । अर्थात् इनकी हेतुता का निराकरण हो जाता है । एव' शब्द का प्रयोग करने से पक्ष के एक देश में असिद्ध हेतु निराकृत हो जाता है,यथा “पृथ्वी आदि भूत अनित्य हैं,क्योंकि गन्धवान् हैं” इस वाक्य के पृथ्वी आदि चारों भूत पक्ष हैं,किन्तु गन्धवत्त्व हेतु केवल पृथ्वी में पाया जाता है, अन्य तीन भूतों में नहीं । अतः यह पक्षकदेशासिद्ध हेत्वाभास है। ऐसे हेतुओं का निराकरण करने के लिए “पक्ष में सत्त्व ही हो” यह कहा गया है । 'सत्त्व' के पश्चात् ‘एव' का प्रयोग करके असाधारण धर्मवाले हेतु का निराकरण किया गया है, अर्थात् जो हेतु केवल पक्ष में ही पाया जाय,सपक्ष में नहीं ,वह हेतु नहीं हो सकता। यदि एव' (ही) का प्रयोग सत्त्व के पूर्व करके “अनुमेय एव सत्त्वम्" कहा जाता तो शब्द की नित्यता' में 'श्रावणत्व' हेतु बन जाता। 'निश्चित' पद के प्रयोग द्वारा संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास का निराकरण किया गया है।९९ धर्मोत्तर ने पृथ्वी आदि भूतों की अनित्यता वाला उदाहरण नहीं देकर “एव” के प्रयोग की पुष्टि में अन्य उदाहरण दिया है, यथा-“वृक्ष चेतन हैं,क्योंकि वे सोते हैं।” यहां पक्षीभूत वृक्षों में से कुछ वृक्ष रात्रि में पत्रसंकोच रूप शयन नहीं करते हैं,अतः शयन करने का हेतु पक्ष के एक देश में असिद्ध होता है । “एव” का प्रयोग करके उस पक्षैकदेशासिद्ध हेतु का निराकरण किया गया है । १०० सपक्षे एव सत्त्वम् निश्चितम्-यह हेतु का दूसरा रूप है । सपक्ष में हेतु का सत्त्व कहने से विरुद्ध नामक हेत्वाभास का निराकरण हो जाता है । विरुद्ध हेतु सपक्ष में नहीं रहता है । 'एव' शब्द से साधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास का निरसन किया गया है । साधारण अनैकान्तिक हेतु सपक्ष में ही नहीं,अपितु विपक्ष में भी रहता है। सत्त्व से पूर्व एवं सपक्ष के अनन्तर अवधारणवाची ‘एवं' का प्रयोग करने से सभी सपक्षों में अव्यापी प्रयलान्तरीयकत्व हेतु का भी समर्थन हो गया है । यथा - 'शब्द अनित्य है प्रयलान्तरीयक होने से,घट के समान' यहां प्रयत्नान्तरीयक हेतु सपक्ष के एक देश में विद्यमान है, घटादि में विद्यमान है, किन्तु विद्युत् आदि में नहीं। विद्युत् प्रयलान्तरीयक नहीं है, किन्तु अनित्य है अतः अनित्य को सिद्ध करने के लिए प्रयत्लान्तरीयक हेतु वहां लागू नहीं होता, फिर भी सपक्ष के पश्चात् 'एव' का प्रयोग करने से उसका सपक्ष में ही होना निर्धारित होता है, विपक्ष में नहीं। इस कारण प्रयत्नान्तरीयक हेतु सद्धेतु है । यदि सत्त्व के पश्चात् ‘एव' का प्रयोग होता है तो प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु नहीं बनता। निश्चित शब्द का ग्रहण करने से 'सन्दिग्धान्वय' नामक अनैकान्तिक ९९. प्रमाणमीमांसा, १.२.९ पृ.३९ १००. एवकारेण पक्षकदेशासिद्धो निरस्तः यथा चेतनास्तरवः स्वापाद् इति पक्षीकृतेषु तरुषु पत्रसंकोचलक्षणः स्वाप एकदेशे न सिद्धः । न हि सर्वे वृक्षा रात्रौ पत्रसंकोचभाजः किन्तु केचिदेव । न्यायबिन्दुटीका २.५, पृ.१०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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