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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए अनेक विशेषणों का प्रयोग किया गया है। बौद्धदार्शनिक दिङ्नाग अथवा शंकरस्वामी ने न्यायप्रवेश में साध्य को ईप्सित एवं प्रत्यक्षादि से अविरुद्ध बतलाया है। ७५ धर्मकीर्ति ने पक्ष में पांच विशेषताओं का निरूपण किया है, जिन्हें साध्य की पांच विशेषताएं माना जा सकता है, यथा - (१) स्वयं वादी द्वारा साध्य को सिद्ध करना अभीष्ट होता है (२) वह सिद्ध नहीं रहता, (३) वह साधन नहीं होता, (४) वह शब्दों से कभी उक्त होता है एवं कभी अनुक्त रहता है तथा (५) वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अनिराकृत रहता है । ७६ जैनदार्शनिक सिद्धसेन ने साध्य अथवा पक्ष को प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अनिराकृत बतलाया है ।' ७७ 'अकलङ्क ने साध्य को शक्य, अभिप्रेत एवं अप्रसिद्ध निरूपित किया है। ७८ अर्थात् अनिर्णीत एवं संशय- विपर्यासादि से विशिष्ट अर्थ को वे साध्य के रूप में स्वीकार करते हैं९ माणिक्यनन्दी ने अकलङ्कका अनुसरण करते हुए इष्ट, अबाधित एवं असिद्ध अर्थ को साध्य प्रतिपादित किया है।" वादिदेवसूरि इसे अप्रतीत, अनिराकृत एवं अभीप्सित के रूप में निरूपित करते हैं? तथा साध्य के इन तीनों विशेषणों के औचित्य का प्रतिपादन करते हैं । वादिदेवसूरि कहते हैं कि शंकित, विपरीत एवं अनध्यवसित अर्थ को साध्य बतलाने के लिए उसे अप्रतीत कहा गया है।८२ प्रत्यक्षादि प्रमाणों के विरुद्ध कोई साध्य नहीं होता, इसलिए उसे अनिराकृत या अबाधित कहा गया है। ८३ अनभिमत अर्थ को साध्य स्वीकार नहीं किया जाता, इसलिए जैन दार्शनिक साध्य जो अभीप्सित कहते हैं। ८४ साध्य को इष्ट या अभीप्सित वादी की अपेक्षा से कहा गया है, प्रतिवादी की अपेक्षा से नहीं । ८५
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इस प्रकार साध्य का लक्षण बौद्ध एवं जैन दोनों दर्शन प्रायः एक जैसा स्वीकार करते हैं। हेतु लक्षण विमर्श
अनुमान प्रमाण का द्वितीय पहत्त्वपूर्ण अंग या घटक 'हेतु' है। हेतु ही साध्य का गमक होता है । भारतीयदर्शन में हेतु को लिङ्ग, साधन, व्याप्य, गमक, नियामक, आपादक आदि भी कहा गया है। बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों में अनुमान प्रमाण के सम्बन्ध में सबसे अधिक विवाद हेतुलक्षण को लेकर है। बौद्ध दार्शनिक हेतु में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व इन तीन रूपों का होना ७५. स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः । प्रत्यक्षाद्यविरुद्धः । - न्यायप्रवेश, पृ. १
७६. स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽ निराकृतः पक्षः । - न्यायबिन्दु, ३.३८ एवं द्रष्टव्य, ३.३९-४१
७७. साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाद्यनिराकृतः । - न्यायावतार, १४
७८. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं । - न्यायविनिश्चय, १७२ एवं प्रमाणसङ्ग्रह, २०
७९. अव्युत्पत्तिसंशयविपर्यासविशिष्टोऽर्थः साध्यः । प्रमाणसंग्रहवृत्ति, २०, अकलङ्कप्रन्थत्रय, पृ. १०२
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८०. इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् । परीक्षामुख, ३.१६
८१. अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम् । प्रमाणनयतत्वालोक, ३.१४
८२. शंकितविपरीतान ध्यवसितवस्तूनां साध्यताप्रतिपत्त्यर्थमप्रतीतवचनम् -- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१५ ८३. प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य साध्यत्वं मा प्रसज्यतामित्यनिराकृतग्रहणम् । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१६ ८४. अनभिमतस्यासाध्यत्वप्रतिपत्तयेऽ भीप्सितपदोपादानम् - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१७ ८५. न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः । - माणिक्यनन्दी, परीक्षामुख ३.१९
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