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________________ अनुमान-प्रमाण २१७ धर्मविशिष्ट धर्मी। धर्मिविशिष्ट धर्म का अर्थ है - धर्मी (पक्ष) से विशिष्ट धर्म (साध्य) का होना,यथा शब्द की अनित्यता। धर्मविशिष्ट धर्मी का अर्थ है - धर्म (अनित्यत्व) से विशिष्ट धर्मी (शब्द)। ६८ वात्स्यायन ने इनमें से मुख्यरूपेण धर्मविशिष्ट धर्मी (अनित्यः शब्दः) को साध्य रूप में स्थापित किया है। “पर्वतो वह्निमान्” साध्य का प्रसिद्ध उदाहरण है, जिसमें अग्नि रूप साध्य-धर्म से विशिष्ट, धर्मी-रूप पर्वत को सिद्ध किया जाता है । पर्वत पर अग्नि सिद्ध करना हो तो धर्मिविशिष्ट धर्म अर्थात् पर्वत विशिष्ट अग्नि को साध्य माना जाता है । दिनाग ने साध्य के तीन कल्प प्रस्तुत किये हैं -(१) केवल धर्म (२) धर्म -धर्मिसम्बन्ध और (३) धर्मविशिष्ट धर्मी। दिङ्नाग ने इनमें से प्रथम दो का खण्डन करवात्स्यायन के समान तृतीय स्वरूप को साध्य के रूप में स्वीकृत किया है।६९ धर्मकीर्ति ने हेतुलक्षण का निरूपण करते समय जिज्ञासित धर्म वाले धर्मी को अनुमेय या साध्य कहा है। धर्मोत्तर उसी प्रसंग में स्पष्ट करते हैं कि अनुमिति के समय धर्मविशिष्टधर्मी या धर्म-धर्मी का समुदाय अनुमेय होता है तथा व्याप्ति के निश्चयकाल में अग्नि रूप धर्म ही साध्य या अनुमेय होता है। वात्स्यायन एवं बौद्ध दार्शनिकों का ही प्रभाव जैन दार्शनिकों पर दिखाई देता है । माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरि ने व्याप्तिग्रहण काल में अग्निरूप धर्म को साध्य तथा आनुमानिक प्रतिपत्ति के समय अग्निरूप धर्म विशिष्ट पर्वतरूप धर्मी को साध्य प्रतिपादित किया है। धर्मी का दूसरा नाम पक्ष है ।७२ इस प्रकार जैन दर्शन में अनुमान-काल में साध्यधर्म विशिष्ट पक्ष को साध्य स्वीकार किया गया है तथा व्याप्तिनिश्चयकाल में मात्र धर्म को ही साध्य माना गया है। तात्पर्य यह है कि बौद्ध एवं जैन दर्शन में साध्य के स्वरूप को लेकर कोई विवाद नहीं है। व्याप्तिनिश्चय काल में जहां दोनों दर्शन अग्नि धर्म को साध्य मानते हैं,वहां अनुमान की प्रतिपत्ति के समय अग्निविशिष्ट पर्वत आदि धर्मी को साध्य स्वीकार करते हैं। न्यायदर्शन में जिस प्रकार अनिर्णीत अथवा संशयित अर्थ में न्याय का प्रवृत्त होना स्वीकार किया गया है, तथा साध्य को प्रज्ञापनीय माना गया है, उसी प्रकारबौद्ध एवं जैन दर्शन में साध्य' ६८. साध्यं च विविध धर्मिविशिष्टो वा धर्मः शब्दस्यानित्यत्वं, धर्मविशिष्टो वा धर्मी अनित्यः शब्दः इति ।- न्यायभाष्य, ६९. दिङ्नाग के इन तीनों कल्पों की चर्चा न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका में हुई है। - भारतीयदर्शन में अनुमान, पृ.४० ७०. अनुमेयोऽत्र जिज्ञासितविशेषो धर्मी ।-न्यायबिन्दु, २.६ ७१. अन्यत्र तु साध्यप्रतिपत्तिकाले समुदायोऽनुमेयः । व्याप्तिनिश्चयकाले तु धर्मोऽनुमेय इति ।-न्यायबिन्दुटीका, २.६ ७२.(१)साध्यं धर्मःक्वचित् ततिशिष्टो वा धर्मी । पक्ष इति यावत् । व्याप्ती तु साध्यं धर्म एव । परीक्षामुख, ३.२१,२२,२८ (२) व्याप्तिग्रहणसमयापेक्षया साध्यं धर्म एव अन्यथा तदनुपपत्तेः । आनुमानिक प्रतिपत्त्यवसरापेक्षया तु पक्षापरपर्या यस्तविशिष्टः प्रसिद्धोधर्मी ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१८,२० ७३. तत्र नानुपलब्धेन निर्णीतेऽयं न्यायः प्रवर्तते, किं तर्हि संशयितेऽथे ।-न्यायभाष्य, १.१.१, १७ ७४. प्रज्ञापनीयेन धर्मव धर्मिणो विशिष्टस्य ।-न्यायभाष्य, १.१.३३, पृ.८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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