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________________ अनुमान-प्रमाण २१९ आवश्यक मानते हैं । जो हेतु इन तीन रूपों से युक्त नहीं होता उसे वे असद् हेतु अथवा हेत्वाभास कहते हैं । पक्षधर्मत्व का अर्थ है धूमादि हेतु का वह्निविशिष्ट पर्वतादि पक्ष में रहना,सपक्षसत्त्व का अर्थ है धूमादि हेतु का महानस आदि सपक्ष में रहना एवं विपक्षासत्त्व का अर्थ है उस हेतु का जलाशय आदि विपक्ष में नहीं रहना। त्रैरूप्य का प्रतिपादन वैशेषिक एवं सांख्य दर्शन में भी किया गया है।८६ वे भी त्रिरूप सम्पन्न हेतु को ही सद्धेतु के रूप में प्रतिपादित करते हैं । श्वेरबात्स्की के अनुसार बौद्ध दर्शन में त्रैरूप्य की कल्पना वैशेषिकों से प्राचीन है,८७ जबकि पं. सुखलालसंघवी वैशेषिक दर्शन में त्रैरूप्य को प्राचीन मानते हैं । “जो भी हो,हेतु के रूप्य लक्षण की सर्वाधिक प्रसिद्धि बौद्ध दर्शन में ही हुई है। जैन दार्शनिकों ने त्रैरूप्य का खण्डन करते समय अपना लक्ष्य बौद्धों को ही बनाया है। न्यायदर्शन में असत्प्रतिपक्षत्व एवं अबाधितविषयत्व को मिलाकर हेतु में पांच रूपों का होना आवश्यक माना गया है।८९ रूप्य हेतु के प्रतिपादक दार्शनिक जहां पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्व से क्रमश: असिद्ध, विरुद्ध एवं अनैकान्तिक हेत्वाभासों का निराकरण करते हैं, वहां पांचरूप्य के प्रतिपादक नैयायिक इनके अतिरिक्त कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास का अबाधितविषयत्व द्वारा एवं प्रकरणसम हेत्वाभास का असत्प्रतिपक्षत्व द्वारा निराकरण करते हैं । नैयायिकों ने केवलान्वयी हेतु में विपक्षासत्त्व का अभाव होने से तथा केवलव्यतिरेकी हेतु में सपक्षसत्त्व का अभाव होने से उनमें चार रूप ही स्वीकार किये हैं । अन्वयव्यतिरेकी हेतु में वे पांचों रूपों का होना आवश्यक मानते हैं। १ हेतु में षड्प एवं सप्तरूप मानने की परम्पराओं के भी उल्लेख मिलते हैं।९२ ८६.(१) वैशेषिक - यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते । तदभावे च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् ॥-प्रशस्तपादभाष्य, अनुमान प्रकरण । (२) सांख्य- द्रष्टव्य, सांख्यकारिका, ५ की माठरवृत्ति । ८७. Buddhist Logic, p. 243-44 ८८. प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ.८१ ८९.(१) पञ्चलक्षणकाल्लिङ्गाद् गृहीतान्नियमस्मृतेः। __ परोक्षे लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं प्रचक्षते । न्यायमञ्जरी, पृ.१०१, उद्धृत, स्याद्वादरत्नाकर, पृ.५२३ (२) द्रष्टव्य, केशवमिश्र, तर्कभाषा, पृ.८६ (३) न्यायपरम्परा में हेतु को द्विलक्षण एवं विलक्षण भी माना गया है। - द्रष्टव्य, न्यायवार्तिक, १.१.३४, पृ.२७६ ९०.(१) बौद्ध-हेतोलिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । __असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥-प्रमाणवार्तिक, ३.१५ (२) वैशेषिक दर्शन में अनेकान्तिक के स्थान पर संदिग्ध शब्द का प्रय विपरीतमतो यत्स्यादेकेन द्वितयेन वा। विरुद्धासिद्धसंदिग्धमल्लिङ्गं काश्यपोऽब्रवीत् ।।-प्रशस्तपादभाष्य, अनुमान प्रकरण । ९१. द्रष्टव्य, केशवमिश्र, तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण। ९२.(१) षड्प मानने वाली परम्परा का उल्लेख अर्चट की हेतुबिन्दु टीका में मिलता है । यथा-षडलक्षणो हेतुरित्यपरे । वीणि चैतानि अबाधितविषयत्वं विवक्षितैकसंख्यत्वं ज्ञातत्वं च ।-हेतुबिन्दुटीका, पृ.२०५ (२) सप्तरूप मानने का उल्लेख वादिराज के न्यायविनिश्चय विवरण में मिलता है, यथा-अन्यथानुपपन्नत्वादिभिश्चतुभिः पक्षधर्मत्वादिभिश्च सप्तलक्षणो हेतुरिति त्रयेण किम्।-न्यायविनिश्चयविवरण २.५५, पृ.१७८-८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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