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अनुमान-प्रमाण
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स्वार्थानुमान जिस अनुमान द्वारा प्रमाता स्वयं अनुमेय अर्थ का ज्ञान करता है वह स्वार्थानुमान कहलाता है।५५ अनुमान-प्रमाण में स्वार्थानुमान का महत्त्व अधिक है, क्योंकि स्वार्थानुमान के बिना परार्थानुमान नहीं हो सकता।
दिङ्नाग ने त्रिरूप लिङ्ग से होने वाले अर्थज्ञान को स्वार्थानुमान कहा है।५६ धर्मकीर्ति ने भी त्रिरूपलिङ्ग से अनुमेय अर्थ में होने वाले ज्ञान को स्वार्थानुमान कहा है।५७ यही मत शान्तरक्षित, कमलशील आदि ने प्रकट किया है। कमलशील कहते हैं कि पक्षधर्मत्व,सपक्ष में सत्त्व एवं विपक्ष से सर्वतो व्यावृत्ति युक्त त्रिरूपलिङ्ग से जो अनुमेय अर्थ का ज्ञान होता है वह स्वार्थानुमान है । ५९ वस्तुतःबौद्ध दर्शन में अनुमान का सामान्यलक्षण निरूपित नहीं है। धर्मोत्तर कहते हैं कि स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक होता है एवं परार्थानुमान शब्दात्मक होता है,इन दोनों में अत्यन्त भेद होने के कारण अनुमान का सामान्य लक्षण संभव नहीं है । यही कारण है कि दिइनाग एवं उनके उत्तरवर्ती बौद्ध दार्शनिकों ने अनुमान के सामान्य लक्षण का निरूपण नहीं करके प्रायः स्वार्थानुमान का लक्षण दिया है। स्वार्थानुमान के लक्षण को ही अनुमान का सामान्य लक्षण माना जा सकता है । त्रिरूपलिङ्ग सम्पन्न हेतु का कथन करने पर वही परार्थानुमान हो जाता है। __इस प्रकार बौद्ध मत में पक्षधर्मत्व,सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व इन तीनों रूपों से युक्त लिङ्ग द्वारा अनुमेय अर्थ के विषय में जो ज्ञान उत्पन्न होता है,वह स्वार्थानुमान कहा जा सकता है। स्वार्थानुमान के द्वारा निश्चित अर्थ का जब हेतु एवं दृष्टान्त के द्वारा अन्य की प्रतिपित्त के लिए कथन किया जाता है तो वह परार्थानुमान कहलाता है।६०
जैन दर्शन में सामान्यरूपेण साध्य के अविनाभावी लिङ्गसे उत्पन्न साध्य के ज्ञान को स्वार्थानमान कहा गया है । सिद्धसेन के न्यायावतार में अनुमान के सामान्य लक्षण से पृथक् स्वार्थानुमान का लक्षण नहीं दिया गया है। वे साध्य के अविनाभावी लिङ्ग से साध्य के निश्चायक ज्ञान को अनुमान कहते हैं।६१ यही जैनदर्शन में स्वार्थानुमान है। अकलङ्कने भी साध्य से अविनाभूत साधन द्वारा होने वाले साध्यज्ञान को अनुमान कहा है३२ एवं स्वार्थानुमान का पृथक् लक्षण नहीं दिया है। विद्यानन्द ने साधन ५५.स्वस्मायिदं स्वार्थम् । न्यायबिन्दुटीका, २.२, १.९८ ५६. स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गतोऽर्थदृक् ।-प्रमाणसमुच्चय, उद्धत, द्वादशारनयचक्र (ज), भाग-१, परिशिष्ट, पृ.१२२ ५७. तर स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गाद् यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानम् । न्यायबिन्दु, २.३ ५८. स्वार्थ विरूपतो लिंगादनुमेयार्थदर्शनम् ।- तत्त्वसंग्रह १३६१ ५९. तत्र स्वार्थ विरूपाल्लिङ्गात् पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम् विपक्षाच्च सर्वतो व्यावृत्तिः इत्येवंलक्षणादनुमेयार्थविषयं ज्ञानं ___ तदात्मकं बोद्धव्यम् । तत्त्वसङ्ग्रहपंजिका, १३६१, पृ.४९४-९५ ६०. परार्थमनुमानं तु स्वदृष्टार्थप्रकाशनम् ।-प्रमाणसमुच्चय, उद्धृत, दादशारनयचक्र, (ज), भाग-१, परिशिष्ट, पृ.१२५ ६१. द्रष्टव्य, यही अध्याय पादटिप्पण, २८ ६२.(१) लिङ्गात् साध्याविनाभावाभिनिबोधकलक्षणात् लिङ्गिधीरनुमानं ॥-लघीयस्त्रय,१२-१३
(२) साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् - न्यायविनिश्चय,१७०
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