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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
को स्वार्थ एवं परार्थ भेदों में जिस आधार पर विभक्त किया है वही आधार सिद्धसेन ने अपनाया है," तथा दिइनाग कृत अनुमान भेदों को प्रत्यक्ष में भी प्रतिपादित किया है । तदनुसार उनके मत में प्रमाण के दो प्रकार है - स्वार्थ एवं परार्थ ।५ सिद्धसेन के उत्तरवर्ती दार्शनिक अकलङ्क के सिद्धिविनिश्चय एवं विद्यानन्द की प्रमाणपरीक्षा ग्रंथों में अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ भेदों का उल्लेख मिलता है । परन्तु अनुमान का विवेचन वे इन भेदों के आधार पर नहीं करते हैं । डा. दरबारी लाल कोठिया के अनुसार अकलङ्कमत में हेतु के एकमात्र लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व के कारण अनुमान का एक ही भेद है,उसके तीन,चार या पांच भेद नहीं।“ विद्यानन्द ने वीत,अवीत एवं वीतावीत के भेद से अनुमान के तीन प्रकार भी निर्दिष्ट किये हैं।९ माणिक्यनन्दी ने स्पष्टरूपेण अनुमान को स्वार्थ एवं परार्थ दो भेदों में विभक्त किया है।५°वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्राचार्य के ग्रंथों में भी अनुमान के वे दोनों भेद स्पष्ट निर्दिष्ट हैं । वादिदेवसूरि ने तो अनुमान को स्वार्थ एवं परार्थ भेदों में विभक्त करने के अनन्तर ही अनुमान का लक्षण निरूपित किया है,पहले नहीं ।५३ ___अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ भेदों के प्रतिष्ठित होने के अनन्तर बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट भेदों को प्रायःस्थान नहीं मिला । यद्यपि पूर्ववत्,शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट भेदों को स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान के उपभेदों में रखा जा सकता था क्योंकि दोनों प्रकार के अनुमान-विभाजन की दृष्टि भिन्न है, किन्तु उन्हें उत्तरकालीन बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में न केवल स्थान नहीं दिया गया, अपितु अभयदेवसूरि, वादिदेवसूरि जैसे आचार्यों ने अनुमान के इन तीन भेदों को अनुचित बतलाकर इनका खण्डन भी किया है।५४
४४. स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधः ।
परार्थ मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः ।।-न्यायावतार,१० ४५. प्रत्यक्षेणानुमानेन प्रसिद्धार्थप्रकाशनात् । __ परस्य तदुपायत्वात् परार्थत्वं दूयोरपि ॥-न्यायावतार, ११ ४६. सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, ६.२, पृ.३१३ ४७. प्रमाणपरीक्षा, पृ.५८ ४८. जैनतर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ.११४-११९ ४९. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, पृ.५७ एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.२०४ एवं वृत्ति । ५०. तदनुमानं द्वेधा । स्वार्थपरार्थभेदात् ।- परीक्षामुख, ३.४८-४९ ५१. अनुमानं द्विप्रकारं स्वार्थ परार्थं च ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.९ ५२. तत् द्विधा स्वार्थ पराई च ।- प्रमाणमीमांसा, १.२.८ ५३. द्रष्टव्य, प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.९-१० ५४.(१) द्रष्टव्य, तत्त्वबोधविधायिनी, पृ.५५९, स्याद्वादरलाकर, पृ.५२७
(२) डा बलिराम शुक्ल ने अपनी कृति अनुमान प्रमाण के पृ.१८१ पर लिखा है कि दिङ्नाग ने नैयायिकों के पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट अनुमान-भेदों की तीव्र आलोचना की है, किन्तु उनके द्वारा प्रदत्त दादशारनयचक्र के संदर्भ
त होता है कि दिङनाग ने वहां पर पर्ववत आदि अनमान-भेदों की कोई आलोचना नहीं की है. अपित "पूर्ववत्" शब्द द्वारा प्रत्यक्ष के समान अनुमान के फल का निर्देश किया है।- द्रष्टव्य, द्वादशारनयचक्र (ज) भाग-१ परिशिष्ट,पृ.१२२
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