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अनुमान प्रमाण
एवं सांख्यदर्शन में प्रतिपादित पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट अनुमान-भेद प्राचीन हैं, जिनका प्रभाव तत्कालीन बौद्ध एवं जैनप्रन्थों पर भी हुआ, फलतः उन्होंने अपने ग्रंथों में इन भेदों का समावेश किया ।
दिङ्नाग ने अनुमान प्रमाण के दो भेदों का प्रतिपादन किया- (१) स्वार्थानुमान एवं (२) परार्थानुमान । ३८ अनुमान प्रमाण के इन दो भेदों का प्रतिपादन भारतीय दर्शन में दिड्नाग की मौलिक देन है। वैशेषिक दर्शन में दिनाग के समकालीन दार्शनिक प्रशस्तपाद ने स्वनिश्चितार्थ एवं परार्थ के रूप में अनुमान का संक्षिप्त विवेचन अवश्य किया है, किन्तु उन्होंने स्पष्टरूपेण स्वार्थ एवं परार्थ इन दो भागों में अनुमान को विभक्त नहीं किया। दूसरी बात यह है कि जिस बलवद्रूप में स्वार्थ एवं परार्थ अनुमान भेदों का स्थापन दिनाग ने किया है, वह सबके द्वारा अनुकरणीय बना ।
दिङ्नाग कृत अनुमान -भेदों को न केवल धर्मकीर्ति, ४० शान्तरक्षित आदि" बौद्ध दार्शनिकों ने अपनाया, अपितु लगभग सभी जैन दार्शनिकों ने इन भेदों को अपने ग्रंथों में स्थान दिया। यही नहीं न्याय, मीमांसा, एवं वेदान्त दर्शन भी इनसे प्रभावित हुए और उन्होंने भी स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान को अनुमान-भेदों के रूप में प्रस्तुत किया।
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अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ विभाजन के पूर्व न्यायदर्शन में प्रतिज्ञा, हेतु आदि पांच अवयवों को अनुमान प्रमाण के अंगों के रूप में स्थापित नहीं किया गया था। प्रमाण से 'अवयव' नामक भिन्न पदार्थ की कल्पना की गयी थी, किन्तु दिङ्नाग द्वारा परार्थानुमान का स्थापन करने के अनन्तर न्यायदर्शन में प्रतिज्ञा, हेतु आदि पांच अवयवों को परार्थानुमान में संगृहीत कर लिया गया । ४२ न्यायदर्शन में जयन्तभट्ट के पूर्व स्वार्थ एवं परार्थ भेदों का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु उनके उत्तरवर्ती दार्शनिकों द्वारा, विशेषतः नव्यन्याय में अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ भेद पर्याप्त महत्त्व के साथ वर्णित हैं। केशवमिश्र की तर्क भाषा आदि ग्रंथ इसके निदर्शन है। मीमांसा दर्शन में शालिकनाथ के ग्रंथ तथा वेदान्त दर्शन में वेदान्तपरिभाषा से संभवतः स्वार्थ एवं परार्थ भेदों का उल्लेख प्रारम्भ हुआ । ४३
जैनदर्शन में अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ भेदों के उल्लेख का प्रारम्भ सिद्धसेन दिवाकर की कृति न्यायावतार से माना जा सकता है, क्योंकि उसके पूर्व जैन ग्रंथों में इन भेदों का उल्लेख नहीं मिलता है। सिद्धसेन दिनाग के समकालीन दार्शनिक थे, उनके पूर्ववर्ती नहीं। क्योंकि दिङ्नाग ने अनुमान
३८. अनुमानं द्विधा स्वार्थं परार्थं च । - प्रमाणसमुच्चय, स्वार्थानुमान-परिच्छेद, उद्धृत, द्वादशारनयचक्र (ज), भाग-१, परिशिष्ट, पृ. १२२
३९. इत्येतत् स्वनिश्चितार्थमनुमानम् । पंचावयवेन वाक्येन स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानम् । प्रशस्तपादभाष्य, अनुमानप्रकरण ।
४०. अनुमानं द्विधा । स्वार्थं परार्थं च । - न्यायबिन्दु, २.१-२
४१. स्वपरार्थविभागेन त्वनुमानं द्विधेष्यते । - तत्त्वसङ्ग्रह, १३६१
४२. Buddhist Logic, Vol. I, p. 291
४३. भारतीयदर्शन में अनुमान, पृ. २५१-५२
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