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________________ २१२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अनुमान प्रतिपादित किया है।२९ वे साधन को साध्य का अविनाभूत मानते हैं, इसलिए सरल शब्दों में उन्होंने साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा है। विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, हेमचन्द्र आदि समस्त जैन दार्शनिक अनुमान-लक्षण में सिद्धसेन एवं अकलङ्क का ही अनुसरण करते हैं।२१ वादिदेवसूरि ने अवश्य धर्मकीर्ति का अनुसरण कर पहले अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ दो भेदों का निरूपण किया है,तदनन्तर उनके विशेष लक्षणों का कथन किया है।३२ इस प्रकार सामान्य रूप से जैन दर्शन में साध्य के अविनाभावी लिङ्ग से अनुमेय अर्थ का ज्ञान होना अनुमान-प्रमाण है। ___ सारांश यह है कि लिङ्ग से लिङ्गी का अथवा हेतु से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है, इसमें जैन एवं बौद्ध दार्शनिक एकमत हैं ,किन्तु बौद्ध दार्शनिक हेतु में त्रिरूपता का होना अनिवार्य मानते हैं , जबकि जैन दार्शनिक उसका खण्डन करते हैं तथा हेतु का मात्र साध्य के साथ अविनाभावित्व स्वीकार करते हैं। अनुमान के विशेष लक्षणों पर विचार करने से पूर्व अनुमान के भेदों को जानना आवश्यक है, अतः अब अनुमान-भेदों पर विचार किया जा रहा है। अनुमान - भेद दिइनाग के पूर्ववर्ती बौद्ध ग्रंथ उपायह्रदय में न्याय ३३ एवं सांख्य दर्शन ३४ सम्मत पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट इन तीन अनुमान-भेदों का विस्तृत निरूपण है।३५ इसी प्रकार सिद्धसेन के पूर्व जैन ग्रंथ अनुयोगद्वारसूत्र में इन्हीं तीन भेदों का प्रतिपादन है।३६ अन्तर यह है कि अनुयोगद्वारसूत्र में 'सामान्यतोदृष्ट' के स्थान पर 'दृष्टसाधर्म्यवत्' नाम दिया गया है, तथा उसके सामान्यदृष्ट एवं विशेषदृष्ट ये दो भेद किये गये हैं । शेषवत् अनुमान को भी कार्य,कारण,गुण,अवयव एवं आश्रय के आधारपर पांच प्रकार का निरूपित किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि न्यायदर्शन २९.लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधकलक्षणात् । लिविधीरनमानं--लघीयलय,१२-१३ ३०. साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् ।-न्यायविनिश्चय, १७० ३१. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, पृ.४५, परीक्षामुख, ३.१०, प्रमाणमीमांसा, १.२.७९ ३२. द्रष्टव्य, प्रमाणनयतत्वालोक ३.९,१०,२३ ३३. अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च ।-न्यायसूत्र १.१.५ ३४. अनुमान विशेषतविविधं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टशेति ।- सांख्यतत्त्वकौमुदी, का.५, पृ.५५ ३५. अनुमान त्रिविधं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं च । यथा षडंगुलि सपिडकमूर्धानं बालं दृष्ट्वा पश्चाद् वृद्धं बहुश्रुतं देवदत्तं दृष्ट्वा षडंगुलिस्मरणात् सोऽयमिति पूर्ववत् । शेषवत् यथा, सागरसलिलं पीत्वा तल्लवणरसमनुभूय शेषमपि सलिलं तुल्यमेव लवणमिति । एतच्छेषवदनुमानम् । सामान्यतोदृष्टं यथा कश्चिद्गच्छंस्तं देशं प्राप्नोति । गगनेऽपि सूर्यचन्द्रमसौ पूर्वस्यां दिश्युदितौ पश्चिमायांचास्तं गतौ । तच्चेष्टायामदृष्टायामपि तद्गमनमनुमीयते । एतत्सामान्यतो दृष्टम्।- उपायहृदय, पृ. १३-१४, ३६.(१) से किं तं अणुमाणे? सतिविहे पण्णत्ते तं जहा-पुव्ववं, सेसवं, दिट्ठसाहम्मवं ।-अनुयोगद्वारसूत्र, अनुमान प्रमाणद्वार (२) अनुयोगद्वारसूत्र में काल की दृष्टि से भी अनुमान के तीन भेद किये गये है, यथा-(१)अतीत काल ग्रहण (२)प्रत्युत्पन्न काल ग्रहण (३) अनागत काल ग्रहण ।- अनुयोगद्वारसूत्र, अनुमान-वर्णन ३७. अनुयोगद्वारसूत्र में वर्णित अनुमानप्रमाण के विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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