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________________ अनुमान प्रमाण अनुमानप्रमाण की कोटि में रखते हैं, त्रिरूपता से रहित ज्ञान को अनुमानाभास प्रतिपादित करते हैं । इसके विपरीत जैन दार्शनिकों के मत में हेतु में त्रिरूपता का कोई औचित्य नहीं है । वे साध्य के साथ अविनाभावी या अन्यथानुपपन्न हेतु के द्वारा होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान प्रमाण स्वीकार करते हैं । 1 दिङ्नागकृत अनुमान-लक्षण उद्योतकर के न्यायवार्तिक में प्राप्त होता है, तदनुसार ज्ञात अविनाभाव सम्बन्ध द्वारा नान्तरीयक अर्थ का दर्शन ही अनुमान है। २३ एक वस्तु का दूसरी वस्तु के अभाव में कभी भी न होना " नान्तरीयक" कहलाता है । नान्तरीयक को अविनाभाव भी कहते हैं। जो वस्तु नान्तरीयक अर्थात् अविनाभाव सम्बन्ध से सम्बद्ध होती है, उसे नान्तरीयक अर्थ कहते हैं । जिस पुरुष को दो वस्तुओं का अविनाभाव सम्बन्ध ज्ञात है, उसे ही नान्तरीयक एक वस्तु के दर्शन द्वारा अपर वस्तु का ज्ञान होता है। नान्तरीयक हेतु त्रिरूपता सम्पन्न होता है। लिङ्ग का अनुमेय पक्ष में होना, सपक्ष में निश्चित होना एवं विपक्ष में न रहना ही त्रिरूपता है। २४ दिड्नाग ने प्रमाणसमुच्चय में स्वार्थानुमान का लक्षण करते समय त्रिरूपलिङ्ग से जन्य ज्ञान को ही अनुमान प्रमाण कहा है। २५ धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में अनुमान-लक्षण इस प्रकार प्रतिपादित किया है- “किसी सम्बन्धी धर्म से, धर्मी के विषय में जो परोक्ष अर्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अनुमान है। २६ मनोरथनन्दी ने इसकी वृत्ति करते हुए लिखा है कि अन्वयव्यतिरेक लिङ्ग द्वारा उसके आश्रय धर्मी में जो परोक्ष अर्थ की प्रतीति होती है वह अनुमान प्रमाण है। यह अनुमान त्रिरूपलिङ्ग द्वारा उत्पन्न होता है। २७ २११ बौद्ध दर्शन में अन्यत्र अनुमान के सामान्य लक्षण का निरूपण नहीं करके अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ भेदों के पृथक् पृथक् लक्षण दिये गये हैं, किन्तु सारांशरूप में यह कहा जा सकता है कि बौद्ध दर्शन के अनुसार पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व रूप तीन रूपों से सम्पन्न लिङ्ग या हेतु द्वारा जो लिङ्गी या साध्य का ज्ञान होता है, वह अनुमान प्रमाण है । जैन दर्शन में साध्य के अविनाभावी हेतु से होने वाले ज्ञान को अनुमान कहा गया है। जो हेतु साध्य के अभाव में नहीं रहता, वही साध्य का साधन होता है। समस्त जैन दार्शनिक इस संबंध में एकमत हैं। इस सरणि में न्यायावतार में सिद्धसेन ने अविनाभावी लिङ्ग द्वारा साध्य के निश्चयात्मक ज्ञान को अनुमान कहा है। २८ अकलङ्क ने भी इसी प्रकार अविनाभूत लिङ्ग द्वारा साध्य के ज्ञान को २३. नान्तरीयकार्थदर्शनं तद्विदोऽनुमानम् । - न्यायवार्तिक, १.१.५, पृ. १२३ २४. अनुमेयेऽथ तत्तुल्ये स्वभावो नास्तिताऽसति । - न्यायवार्तिक, १.१.५, पृ.१२६ २५. त्रिरूपाल्लिङ्गतोऽर्थदृक् । प्रमाणसमुच्चय, स्वार्थानुमानपरिच्छेद, उद्धत, द्वादशारनयचक्र (ज), भाग-१, परिशिष्ट, पृ.१२२ २६. या च सम्बन्धिनो धर्माद् भूतिधर्मिणि ज्ञायते । सानुमानं परोक्षाणामेकान्तेनैव साधनम् ॥ प्रमाणवार्तिक, २.६२ २७. प्रमाणवार्तिक (म.न.) २.६२, पृ.१२० २८. साध्याविनाभुनो लिङ्गात् साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ॥ - न्यायावतार, ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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