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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
व्याप्तिस्मरण के पश्चात् होने वाला प्रमाण अनुमान है ।१४ कमलशील ने लिङ्ग- निश्चय का निरूपण करते हुए प्रतिपादित किया है कि भलीभांति निश्चित किया हुआ लिङ्गही साध्य का गमक होता है, संदिग्ध लिङ्ग नहीं । वाष्पादि रूप में सन्दिह्यमान धूम अग्नि का निश्चायक नहीं होता है । लिङ्ग का निश्चय अभ्यास से होता है।५ बौद्धमत में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के अनन्तर उत्पन्न विकल्प को अध्यवसायात्मक माना गया है अतः वह अभ्यास द्वारा लिङ्ग निश्चायक होता है। कमलशील प्रतिपादित करते हैं कि अभ्यस्त स्वलक्षण वाले पुरुष धूमादि से वाष्पादि का व्यावर्तन कर लेते हैं तथा वाष्पादि का व्यावर्तन करके ही वे धूम से वह्नि का ज्ञान करते हैं। इसलिए जो लिङ्गसुविवेचित होता है उसका साध्य के साथ व्यभिचार नहीं होता ।१६ जैन दार्शनिक लिङ्ग एवं साध्य का प्रत्यक्ष द्वारा अध्यवसाय करके भी उनकी व्याप्ति का निश्चय तर्कप्रमाण द्वारा करते हैं। अनुमान-लक्षण
_ 'अनु' उपसर्ग पूर्वक 'मा' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय लगाकर अनुमान' शब्द निष्पन्न हुआ है जो किसी उत्तरवर्ती या पश्चाभावी ज्ञान का द्योतन करता है । अक्षपाद गौतम ने इसीलिए अनुमान को प्रत्यक्षपूर्वक प्रतिपादित किया है। वात्स्यायन ने उसे प्रत्यक्ष या आगम पर आश्रित बतलाया है ।१८ अनुमान शब्द की निरुक्ति करते समय वात्स्यायन प्रतिपादित करते हैं कि प्रत्यक्ष-प्रमाण द्वारा ज्ञात लिङ्ग से लिङ्गी अर्थ का ज्ञान करना अनुमान है ।१९ धर्मोत्तर इसी प्रकार अनुमान का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि लिङ्गके ग्रहण एवं व्याप्ति स्मरण के पश्चात् होने वाला प्रमाण अनुमान है ।२°हेमचन्द्र भी अनुमान की इसी प्रकार निरुक्ति करते हुए दिखाई देते हैं।२१
साधन से साध्य का ज्ञान होना अथवा लिङ्ग से अनुमेय अर्थ का ज्ञान होना अनुमान है। अनुमानप्रमाण का यह सामान्यलक्षण जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शनों को मान्य है,२२ बौद्ध दार्शनिकों के मत में अनुमेय अर्थ का ज्ञान करने के लिए हेतु में त्रिरूपता का होना आवश्यक है। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व इन तीन रूपों से सम्पन्न हेतु द्वारा जन्य अनुमेयार्थ के ज्ञान को ही वे
१४. लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणस्य पश्चात् मानमनुमानम् ।- न्यायबिन्दुटीका, १.३, पृ.३० १५. सुपरिनिश्चितं लिङ्ग गमकमिष्यते न सन्दिग्धम् । न हि धूमो वाष्पादिरूपेण सन्दिह्यमानो वहेनिश्चायको भवति ।
लिङ्गनिश्चय एव कथमिति चेत् अभ्यासात् । - तत्त्वसङ्ग्रहपंजिका,१४७४, पृ. ५२५-२६ १६. तस्माद् यतः सुविवेचितं लिङ्गंन व्यभिचरति, तेनावस्थादिभेदभिन्नानां सिद्धिर्न दुर्लभा । नापि सुविवेचिताल्लिङ्गात्
परिनिश्चितोऽर्थोऽन्यथा शक्यते कर्तुम् ।- तत्त्वसंग्रहपंजिका, १४७५, पृ. ५२६ १७. अब तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम्-|-न्यायसूत्र, १.१.५ १८. प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानम् ।- न्यायभाष्य, १.१.१, पृ.८ १९. तत्पूर्वकमित्यनेन लिगलिगनोः सम्बन्धदर्शनं-स्मृत्या लिङ्गदर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽथोऽनुमीयते ।-न्यायभाष्य, १.१.५,
२०. द्रष्टव्य, उपर्युक्त पादटिप्पण,१४ २१. अनुमीयतेऽनेनेति अनुमानम् लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणयोः पश्चात् परिच्छेदनम् ।-प्रमाणमीमांसावृत्ति, १.१.७ २२.(१) साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् ।-परीक्षामुख, ३.१०
(२) अनुमानं लिङ्गादर्थदर्शनम् ।- न्यायप्रवेश, पृ.७
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