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अनुमान-प्रमाण
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अनुमान प्रमाण कहा है। कमलशील का कथन है कि जो ज्ञान त्रिरूपलिङ्ग से उत्पन्न होता है वह पारम्पर्येण स्वलक्षण वस्तु से प्रतिबद्ध होता है, इसलिए वह प्रत्यक्ष के समान अविसंवादक होता है। धर्मकीर्ति ने भी लिङ्ग एवं लिङ्गी अर्थात् हेतु एवं साध्य के ज्ञान को परम्परा से स्वलक्षण वस्तु में प्रतिबद्ध निरूपित किया है। इस प्रकार जो ज्ञान त्रिरूपलिङ्ग से उत्पन्न होता है वह विकल्पात्मक या प्रान्त होकर भी अविसंवादक होने के कारण बौद्धदर्शन में अनुमान-प्रमाण के रूप में अभीष्ट माना गया है। __ जैन दार्शनिक अनुमान को प्रान्त ज्ञान नहीं मानते हैं। सिद्धसेन कहते हैं कि कोई ज्ञान प्रान्त भी हो एवं प्रमाण भी हो,यह विरोधी होने से शक्य नहीं है।" जैनदार्शनिकों के अनुसार प्रत्यक्ष जिस प्रकार अभ्रान्त एवं संवादक होता है उसी प्रकार अनुमान भी अभ्रान्त एवं संवादक होता है। स्वपरनिश्चयात्मकता रूप प्रमाणलक्षण प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों में समानरूपेण व्याप्त रहता है। अनुमान-प्रमाण का विषय भी उतना ही यथार्थ या वस्तुभूत है जितना प्रत्यक्ष का विषय । जैन दार्शनिक दोनों प्रमाणों का विषय सामान्यविशेषात्मक अर्थ को स्वीकार करते हैं । इनके अनुसार बौद्ध सम्मत अनुमान-प्रमाण की अविसंवादकता सिद्ध नहीं है। विद्यानन्द ने धर्मकीर्ति द्वारा प्रदत्त मणिप्रभा एवं प्रदीपप्रभा के दृष्टान्त का खण्डन करते हुए प्रतिपादित किया है कि मणिप्रभा से मणि की प्राप्ति रूप संवादकता को प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भिन्न प्रमाण मानना होगा,क्योंकि मणिप्रभा में मणिबुद्धि होना प्रान्त ज्ञान है, इसलिए वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इसे अनुमान भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मणिप्रभादर्शन में लिङ्ग और लिङ्गी के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है। लिङ्ग एवं लिङ्गी का ज्ञान हुए बिना अनुमान-प्रमाण प्रवृत्त नहीं हो सकता।१२ जैन दार्शनिक बौद्धसम्मत अनुमान में इसलिए भी संवादकता स्वीकार नहीं करते,क्योंकि उसका ग्राह्य विषय सामान्यलक्षण अध्यवसेय विषय स्वलक्षण से भिन्न माना गया है। विद्यानन्द का तो यहां तक कथन है कि अनुमान का आलम्बनप्रत्यय सामान्यलक्षण जब अवस्तु या मिथ्या है तो उससे प्राप्त स्वलक्षण वास्तविक नहीं हो सकता। यदि प्राप्य स्वलक्षण वास्तविक है तो ग्राह्य सामान्यलक्षण को भी वास्तविक अर्थ मानना चाहिए।१३
बौद्ध दार्शनिकों ने जब प्रत्यक्ष प्रमाण को निर्विकल्पक एवं अव्यवसायात्मक स्वीकार किया है तो उसके द्वारा लिङ्ग या हेतु का निश्चय नहीं हो सकता और लिङ्ग का निश्चय हुए बिना अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। धर्मोत्तर ने स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि लिङ्ग के ग्रहण एवं ८. विरूपलिङ्गपूर्वत्वं ननु संवादिलक्षणम् ।- तत्त्वसमह, १४६७ ९. यतस्विरूपलिजं यज्ज्ञानं तत् पारम्पयेण वस्तुनि प्रतिबद्धम् अतोऽविसंवादकं प्रत्यक्षवत् ।- तत्त्वसंग्रहपञ्जिका,१४६७,
पृ.५२३ १०.लिलिनिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि ।
प्रतिबन्धात् तदाभासशून्ययोरप्यवचनम् ।।-प्रमाणवार्तिक, २.८२ ११.प्रान्तं प्रमाणमित्येतद् विरुद्धवचनं यतः ।-न्यायावतार.६ १२.विस्तार से विद्यानन्द कृत खण्डन के लिए द्रष्टव्य, द्वितीय अध्याय में बौद्धों के द्वितीय प्रमाणलक्षण का खण्डन, पृ.९२ १३. न हि तदालम्बनं प्रान्तं प्राप्येऽपि वस्तुनि प्रान्तत्वप्रसंगात् । प्राप्ये तस्याविसंवादकत्वे स्वालम्बनेऽप्यविसंवादकत्वम् ।
- अष्टसहस्री, पृ. २७८
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