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चतुर्थ अध्याय
अनुमान-प्रमाण न्याय,वैशेषिक एवं मीमांसा दर्शनों की भांति जैनदर्शन में भी अनुमान-प्रमाण को प्रत्यक्ष के समान यथार्थ विषय का ग्राहक प्रतिपादित किया गया है,जबकि बौद्ध दर्शन में अनुमान-प्रमाण का विषय प्रत्यक्ष की भांति परमार्थसत् नहीं, अपितु अवस्तुभूत एवं कल्पित सामान्यलक्षण है। सामान्यलक्षण को विषय करने के कारण धर्मकीर्ति ने अनुमान को प्रान्त ज्ञान कहा है। धर्मोत्तर कहते हैं कि अनुमान अपने द्वारा गृहीत अनर्थ या अवस्तुभूत सामान्यलक्षण में परमार्थसत् स्वलक्षण वस्तु का अध्यवसाय करता है,इसलिए वह प्रान्त है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि अनुमान जब प्रान्त ज्ञान है तथा अवस्तुभूत एवं अर्थक्रियासामर्थ्य से रहित अर्थ को विषय करता है तो फिर उसे बौद्ध दर्शन में प्रमाण क्यों माना गया? धर्मकीर्ति ने अनुमान को प्रान्त होते हुए भी प्रमाता के अभिप्राय का अविसंवादक होने के कारण प्रमाण माना है। धर्मकीर्ति कहते हैं कि यद्यपि परमार्थतः प्रमेय एक ही है और वह स्वलक्षण है, किन्तु उस स्वलक्षण का प्रत्यक्ष द्वारा स्वरूपसे ज्ञान होता है तथा अनुमान द्वारा पररूप अर्थात् सामान्यलक्षण अर्थ के रूप में ज्ञान होता है। सामान्यलक्षण के ग्राहक प्रमाण द्वारा वस्तुतः अर्थक्रिया में समर्थ स्वलक्षण अर्थ का अध्यवसाय होता है इसलिए अनुमान भी प्रमाण है। अनुमान का प्रामाण्य धर्मकीर्ति अर्थक्रिया की अविसंवादकता के कारण स्वीकार करते हैं। समस्त भ्रान्त ज्ञान प्रमाण नहीं होते हैं, अपितु जो भ्रान्तज्ञान अविसंवादक सिद्ध होता है वह अनुमानप्रमाण कहा गया है। अनुमान की प्रमाणता सिद्ध करने के लिए धर्मकीर्ति मणिप्रभा एवं प्रदीपप्रभा का दृष्टान्त देते हैं। मणिप्रभा एवं प्रदीपप्रभा दोनों में मणिबुद्धि होना यद्यपि प्रान्त ज्ञान है तथापि मणिप्रभा की ओर दौड़ने वाले पुरुष को मणि की प्राप्ति होती है,एवं प्रदीप प्रभा की ओर दौडने वाले पुरुष को मणि की प्राप्ति नहीं होती है । उसी प्रकार जिस भ्रान्तज्ञान से स्वलक्षण अर्थ की प्राप्ति होती है,अथवा जो प्रान्त ज्ञान अविसंवादक सिद्ध होता है वह अनुमान-प्रमाण है, एवं जो अविसंवादक सिद्ध नहीं होता वह अनुमानाभास है। अनुमान-प्रमाण के लिए त्रिरूपलिङ्गता का होना भी आवश्यक है। बिना त्रिरूपलिङ्गता के कोई भी प्रान्त ज्ञान अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता । इसीलिए शान्तरक्षित एवं कमलशील ने त्रिरूपलिङ्ग युक्त संवादक ज्ञान को १. अयथाभिनिवेशेन द्वितीया प्रान्तिरिष्यते ।- प्रमाणवार्तिक, २.५५ २. प्रान्तं हनुमानं स्वप्रतिभासेऽनऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात् ।-न्यायविन्दुटीका, १.४, पृ.४० ३. अभिप्रायाविसंवादादपि प्रान्तेः प्रमाणता ।-प्रमाणवार्तिक, २.५६ ४. मेयं त्वेकं स्वलक्षणम् ।- प्रमाणवार्तिक, २.५३ ५. तस्य स्वपररूपाभ्यां गतेयद्वयं मतम् ।-प्रमाणवार्तिक, २.५४ ६. स्वलक्षणमध्यवसितं प्रवृत्तिविषयोऽनुमानस्य ।-न्यायबिन्दुटीका, १.१२, पृ.७२ ७. इस दृष्टान्त की चर्चा द्वितीय अध्याय के अविसंवादक प्रमाण-लक्षण में की जा चुकी है । धर्मकीर्ति कहते हैं
मणिप्रदीपप्रभयोमणिबुद्ध्याभिधावतोः। मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियांप्रति ॥ यथा तथा यथार्थत्वेप्यनुमानतदाभयोः । अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ।।-प्रमाणवार्तिक, २.५७-५८
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