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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण २०७ के अभाव में भी प्रमाण क्यों कहा गया? जैन दार्शनिकों के पास इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। अवग्रह एवं ईहा जैनागमों में मतिज्ञान के भेदों में निरूपित है तथा मतिज्ञान को प्रमाण स्वीकार करने के कारण ही संभवतःजैन दार्शनिकों ने अवग्रह एवं ईहा ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण माना है । उनको प्रमाण स्वीकार करने से निश्चयात्मकता का प्रश्न उठा । यही कारण है कि पूज्यपाद देवनन्दी, अकलङ्क विद्यानन्द, वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्र ने अवग्रह को निश्चयात्मक ज्ञान माना है। किन्तु उमास्वाति , जिनभद्र , सिद्धसेनगणि , यशोविजय आदि कुछ जैन दार्शनिक अवग्रह को जैनागमानुसार निश्चयात्मक ज्ञान अंगीकार नहीं करते हैं। वस्तुतः अवायज्ञान के पूर्व अवग्रह एवं ईहा ज्ञान निश्चयात्मक नहीं कहे जा सकते । अवग्रह एवं ईहा को यदि निश्चयात्मकता के अंग होने से प्रमाण स्वीकार किया जाता है तो अवग्रह के पूर्ववर्ती निर्विकल्पक दर्शन का भी प्रामाण्य स्वीकार करने का प्रसंग आता है । दर्शन से अवग्रह व ईहा में जो अन्तर है वह ज्ञानात्मकता एवं विकल्पात्मकता का है। दर्शन ज्ञान नहीं है एवं निर्विकल्पक है तथा अवग्रह एवं ईहा ज्ञानात्मक एवं विकल्पात्मक हैं। जैनागमों में अवग्रह एवं ईहा को सविकल्पकता के कारण ही संभवतः ज्ञान माना गया है । अकलङ्क ने अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा में पूर्वोत्तर क्रम से प्रमाण एवं फलरूपता स्वीकार की है ,किन्तु उससे अवग्रह एवं ईहा की निश्चयात्मकता या हेयोपादेय अर्थ की ज्ञापकता प्रकट नहीं होती । इसलिए अवग्रह एवं ईहा ज्ञान को प्रमाणलक्षण की कोटि में सम्मिलित करना जैनागमों की अनुपालना मात्र सिद्ध होती है,मौलिक प्रमाणमीमांसीय चिन्तन का उसमें अभाव प्रतीत होता है। शुद्ध प्रत्यक्ष की दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष समीचीन प्रतीत होता है ,किन्तु प्रमाण द्वारा अर्थ-क्रिया में प्रवृत्ति या हेयोपादेय के ज्ञान की दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो वह सर्वथा अनुपयोगी एवं अव्यवहार्य है तथा जैनसम्मत सविकल्पक प्रत्यक्ष उपयोगी एवं व्यवहार्य प्रतीत होता है । बौद्धदर्शन-सम्मत प्रत्यक्ष इसलिए अव्यवहार्य एवं काल्पनिक सिद्ध होता है ,क्योंकि उसका विषय स्थूल एवं स्थिर दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थ नहीं , अपितु निरन्तर गतिशील एवं सूक्ष्म व असाधारण स्वलक्षण परमाणु हैं, जिनका किसी भी पुरुष को प्रत्यक्ष होता हुआ दिखाई नहीं देता है । क्षणभंगवाद को मानने के कारण बौद्ध दार्शनिकों के लिए यह आवश्यक था कि वे स्वलक्षण परमाणुओं को यथार्थ,परमार्थसत् प्रतिपादित कर उनका प्रत्यक्ष-प्रमाण से ग्रहण होना स्वीकार करें। सञ्चितालम्बनाः पञ्चविज्ञानकायाः''तत्रानेकार्थजन्यत्वात् स्वार्थे सामान्यगोचरम्' आदि वाक्य स्पष्ट प्रतिपादन करते हैं कि अनेक स्वलक्षण मिलकर ही दृश्य होते हैं अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनते हैं । स्वलक्षण परमाणुओं का संचित समुदाय होना सामान्य है । सामान्य का ग्रहण बौद्धमत में विकल्पात्मक होता है । इसलिए उसे परमार्थतः निर्विकल्पक नहीं कहा जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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