________________
२०६
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
ने अर्थाकार प्रतिपादित किया है । जैनों को प्रमाण की साकारता मान्य होने पर भी अर्थाकारता मान्य नहीं है, किन्तु बौद्धमत में प्रत्यक्ष भी प्रमाण होने के कारण अर्थाकार होना चाहिए । अर्थाकारता में अर्थ का ग्रहण होने के कारण प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक कहना युक्तिसंगत नहीं लगता। ज्ञान अर्थाकार होकर भी निर्विकल्पक हो यह संभव नहीं है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि जैन दार्शनिक प्रत्यक्ष को निश्चयात्मक प्रतिपादित करके भी उसे शब्दयोजना से विविक्त क्यों मानते हैं ? न्याय,वैशेषिक,मीमांसा,व्याकरण,बौद्ध आदि समस्त दर्शन निश्चयात्मकता के साथ शब्दयोजना का होना आवश्यक मानते हैं। जैनदार्शनिकों ने प्रत्यक्ष में व्यपदेश्यता अथवा अभिलापसंसर्गयोग्यतारूप प्रतिभास का होना तो स्वीकार किया है (जो बौद्धमतानुसार विकल्पात्मक है), किन्तु नाम योजना रूप कल्पना के अभाव में भी उन्होंने प्रत्यक्ष में निश्चयात्मकता अंगीकार की है। यहां नामयोजना या शब्दयोजना का अभिप्राय जैन दार्शनिकों ने संभवतः ज्ञेय अर्थ का ‘वाचक शब्द' लेकर उसका निषेध किया है।४०° वाचक शब्द के अभाव में भी विद्यानन्द , अभयदेव , प्रभाचन्द्र आदि सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष की सविकल्पकता एवं निश्चयात्मकता अंगीकार करते हैं । जैनदार्शनिक केवलज्ञान जैसे अतीन्द्रियज्ञान में भी सविकल्पकता एवं निश्चयात्मकता का प्रतिपादन करते हैं। उसमें यदि वे शब्दयोजना को स्वीकार करते तो संभवतः किसी भी अर्थ का निश्चयात्मक ज्ञान होना संभव नहीं होता । दूसरी बात यह है कि यदि शब्दयोजना होने पर निश्चयात्मक ज्ञान स्वीकार किया जाता है तो अन्योन्याश्रय दोष आता है क्योंकि निश्चयात्मकता के बिना शब्द संकेत का ग्रहण नहीं हो सकता तथा शब्दसंकेत के बिना निश्चयात्मक नहीं हो सकती । इन दोषों से बचने के लिए ही जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष को स्वतः व्यवसायात्मक माना है।
विकल्पात्मक एवं निश्चयात्मक होते हुए भी जो ज्ञान विशद होता है वही जैन दर्शन में प्रत्यक्ष है। विशदता का सम्बन्ध निर्विकल्पकता से नहीं है। विशदता में इदन्तया प्रतिभास होता है तथा उसमें किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है । वह साक्षात्कारी ज्ञान होता है ।स्मृति,अनुमान आदि प्रमाण विकल्पात्मक होते हुए भी प्रत्यक्ष की अपेक्षा अविशद होते हैं । ___ जो ज्ञान विकल्पात्मक होता है,वह निश्चयात्मक भी हो, यह आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने संशय, विपर्ययादि विकल्पों को प्रमाण में सम्मिलित नहीं किया है । वे समस्त विकल्पों को वितथ भी नहीं कहते,क्योंकि विकल्पात्मकता के बिना जगत् का व्यवहार नहीं हो सकता।
प्रश्न यह है कि विकल्पात्मक होकर भी जैनदर्शन में अवग्रह एवं ईहाज्ञान निश्चयात्मक नहीं होते,अवाय एवं धारणा ज्ञान निश्चयात्मक होते हैं,तब फिर अवग्रह एवं ईहाज्ञान को निश्चयात्मकता ४००. 'वाचक' शब्द का प्रयोग कर अन्य को ज्ञान कराने के लिए जैनदार्शनिक सिद्धसेन एवं वादिदेवसूरि ने परार्थ प्रत्यक्ष
का प्रतिपादन किया है । (१) द्रष्टव्य, न्यायावतार.११ (२) प्रत्यक्षपरिच्छिन्नार्थाभिधायि वचनं परार्थं प्रत्यक्ष परप्रत्यक्षहेतृत्वात् ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org