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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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को अभिलापसंसर्गयोग्य प्रतिपादित किया है तथा विकल्पको अर्थ से अनुत्पन्न कहकर उसका प्रत्यक्ष से व्यावर्तन किया है । सामान्यतः शान्तरक्षित एवं कमलशील अभिलापवती प्रतीति को कल्पना कहते हैं,जो न्याय-वैशेषिक,मीमांसादि दर्शनों को भी अभीष्ट है ।कल्पना का यह अर्थ स्वीकार करने में जैनदार्शनिक भी सहमत हैं तथा वे भी प्रत्यक्ष में शब्दयोजना को अनावश्यक कहकर प्रत्यक्ष को कथञ्चित् कल्पनापोढ या निर्विकल्पक मानते हैं । जैनदार्शनिकों ने बौद्धों की ओर से कल्पना की अन्य कोटियों, यथा-अस्पष्टाकार प्रतीति, गृहीतग्राहिता, अध्यवसायात्मकता, असत् में प्रवर्तकता, समारोप की अनिषेधता, संव्यवहारानुपयोगिता, स्वलक्षणाविषयकप्ता, शब्दजन्यता आदि को भी प्रस्तुत कर उन पर विचार किया है।
जैनदार्शनिक प्रमुखरूपेण निश्चयात्मकता,अभिलापसंसर्गयोग्यता एवं ज्ञानात्मकता के कारण प्रत्यक्ष को सविकल्पक प्रतिपादित करते हैं । जैन दार्शनिकों ने विकल्प की मुख्यतः दो विशेषताएं स्वीकार की हैं-निश्चयात्मकता एवं जात्यादिविशिष्ट या सामान्यविशेषात्मक अर्थ की ग्राहिता। निश्चयात्मकता के साथ ही वे संवाददाता,संव्यवहार के लिए उपयोगिता आदि का भी ग्रहण कर लेते हैं। जैन ग्रंथों में ज्ञान को सविकल्पक एवं दर्शन को निर्विकल्पक प्रतिपादित किया गया है ।३९९ इनमें ज्ञान के पूर्व दर्शन होता है । दर्शन को जैनदार्शनिक बौद्धों के प्रत्यक्ष की भांति निर्विकल्पक, अनभिधेय आदि मानते हैं ,किन्तु उसको अज्ञानात्मक,अर्थक्रिया में अप्रवर्तक एवं निश्चयात्मक नहीं होने के कारण प्रमाण नहीं मानते है ।
जैनदार्शनिक मत में कोई भी ज्ञान या प्रमाण निर्विकल्पक नहीं होता है । जैनों ने बौद्ध प्रत्यक्ष को परमाणुसंघात,या स्वलक्षणसमूह में उत्पन्न होने के कारण भी सविकल्पक सिद्ध किया है । बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग धर्मकीर्ति आदि ने भी स्वलक्षणसंघात से ही प्रत्यक्ष की उत्पत्ति स्वीकार की है। जैन दार्शनिक मल्लवादी ने स्वलक्षणसमूह को सामान्य कह कर प्रत्यक्ष को सविकल्पक सिद्ध किया है । मल्लवादी कहते हैं कि प्रत्यक्ष निरूपणात्मक है इसलिए सविकल्पक है, उससे आलम्बनप्रत्यय रूप स्वलक्षण से विपरीत सामान्य नीलपीतादि परमाणुसंघात का ज्ञान होता है, इसलिए भी प्रत्यक्ष कल्पनात्मक है ।मल्लवादी ने दिङ्नागीय प्रत्यक्ष का खण्डन करने हेतु जो तर्क दिये हैं उनका खण्डन किसी भी बौद्ध दार्शनिक ने नहीं किया। अकलङ्क, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र आदि दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष के विषय को सांश या सामान्यविशेषात्मक प्रतिपादित करके भी प्रत्यक्ष को सविकल्पक सिद्ध किया
है।
___ जैनदार्शनिक प्रतिपादित करते हैं कि समस्त कल्पनाओं के संहार की अवस्था में भी स्थिर,स्थूल अर्थ का प्रतिभास होता है और वह प्रतिभास शब्दसंसर्गयोग्य होता है इसलिए वह भी सविकल्पक ही है। बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष को सविकल्पक सिद्ध करने के लिए जैनदार्शनिकों की ओर से एक हेत
और दिया जा सकता है,वह है प्रमाण की अर्थाकारता,या अर्थसरूपता । प्रमाण को बौद्ध दार्शनिकों ३९९. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग-३, पृ० ५४५
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