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________________ २०२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा कहते हैं कि परिमाण के अतिशय के समान प्रज्ञा के तारतम्य की कहीं विश्रान्ति होनी चाहिए। यह विश्रान्ति अथवा निरतिशय प्रज्ञा केवलज्ञान में होती है ।२८९ इस प्रकार ज्ञानावरण के सम्पूर्णक्षय,बाधकाभाव,प्रज्ञा की निरतिशयता, अत्यन्त अपरोक्ष अर्थों का अविसंवादी ज्ञान जैनदर्शन में सर्वज्ञता की सिद्धि करते हैं। बौद्धदर्शन के प्रवर्तक भगवान गौतम बुद्ध स्वयं संसार के शाश्वत,अशाश्वत होने आदि अनेक प्रश्नों के उत्तर अव्याकृत छोड़ देते हैं । यही कारण है कि बौद्ध दर्शन में बुद्ध को सर्वज्ञ मानने की परम्परा जैनदर्शन की भांति बलवती नहीं रही है। धर्मकीर्ति ने बुद्ध की सर्वज्ञता की सिद्धि पर बल नहीं दिया ,किन्तु प्रज्ञाकरगुप्त शांतरक्षित आदि ने सर्वज्ञता को महत्त्व दिया है । धर्मकीर्ति ने बुद्ध में सर्वज्ञता का प्रतिषेध तो नहीं किया,किन्तु सर्वज्ञता को महत्त्व नहीं देकर उनकी धर्मज्ञता पर बल दिया है। धर्मकीर्ति कहते हैं - "हेय एवं उपादेय तत्त्वों को साभ्युपाय जानने वाला पुरुष हमें प्रमाण रूप में इष्ट है ,समस्त अर्थों को जानने वाला नहीं । हमें तो संसार-दुःख के शमन करने वाले ज्ञान का विचार करना चाहिए। उन ज्ञानवान् पुरुषों को कीड़े मकोड़ों की संख्या का ज्ञान है कि नहीं ,इससे हमें क्या प्रयोजन है ? कोई ज्ञानवान् पुरुष दूरवर्ती वस्तु को देखे या नहीं देखे ,किन्तु उसे आर्यसत्यचतुष्टय रूप इष्ट तत्त्व का ज्ञान होना चाहिए। यदि दूरदर्शी पुरुष प्रमाण होता है तो आइए मुमुक्षुओं ! हम दूरदर्शी गिद्धों की उपासना करें।"३९० ___ इससे स्पष्ट होता है कि धर्मकीर्ति की आस्था भगवान् बुद्ध को जगत् के समस्त पदार्थों का ज्ञाता मानने में नहीं, अपितु दुःख से मुक्ति के उपदेष्टा-धर्मज्ञ मानने में है। धर्मकीर्ति का यह मन्तव्य जैनदार्शनिकों के विरोध में जाता है,क्योंकि जैनदार्शनिक भगवान् महावीर या केवलज्ञानी पुरुषों को जगत् के समस्त अर्थों का ज्ञाता मानते हैं। धर्मकीर्ति के अनन्तर प्रज्ञाकरगुप्त , शान्तरक्षित आदि बौद्ध दार्शनिकों ने भी संभवतः अन्यमतावलम्बियों से प्रभावित होकर बुद्ध में सर्वज्ञता का स्थापन किया है । प्रज्ञाकरगुप्त का कथन है कि साधक के वीतराग होने पर उसे समस्त अर्थों का ज्ञान हो सकता हैं । वीतराग पुरुष समाधियुक्त होकर समस्त अर्थों का निश्चित ज्ञान कर लेता है ।३९१ शान्तरक्षित ने प्रतिपादित किया है कि सर्वज्ञ पुरुष में ऐसी शक्ति होती है कि वह जिस वस्तु का ज्ञान करने की इच्छा करता है उस वस्तु का उसे ३८९. प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिद्धिः ।- प्रमाणमीमांसा , १.१.१६ ३९०.हेयोपादेयतत्वस्य साम्यपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ।।-प्रमाणवार्तिक, १.३४ तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ।।- प्रमाणवार्तिक, १.३३ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेत गृध्रानुपास्महे ।।-प्रमाणवार्तिक, १.३५ ३९१. ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थज्ञानसंभवः । समाहितस्य सकलं चकास्ति विनिश्चितम् ।-प्रमाणवार्तिकभाष्य, पृ०३२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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