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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण २०३ ज्ञान हो जाता है । यह शक्ति वीतराग पुरुष में ज्ञेय पदार्थों के आवरण का क्षय होने पर प्राप्त होती है।३९२ नागसेन ने भी शान्तरक्षित के जैसा ही मत प्रकट किया है।३९३३ ___ इस प्रकार बौद्ध एवं जैन दार्शनिक सर्वज्ञता के सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं । बौद्ध दार्शनिकों ने सर्वज्ञता को उत्तरकाल में महत्त्व दिया भी ,किन्तु वीतराग पुरुष में सब पदार्थों को जानने की मात्र शक्ति बतलायी है जिससे वीतराग पुरुष जिस अर्थ को जानना चाहे ,जान सकता है, जबकि जैनदार्शनिकों ने सर्वज्ञ को सदैव समस्त अर्थों का ज्ञाता प्रतिपादित किया है। यह अवश्य है कि प्राचीन जैनागम आचाराङ्ग सूत्र में सर्वज्ञ को त्रिलोकवर्ती जगत् के पदार्थों का ज्ञाता प्रतिपादित नहीं किया गया है । सर्वज्ञता के प्रतिपादन में आचाराङ्ग सूत्र में कहा गया है - "जो एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ"३९४ अर्थात् जो एक को जानता है वह सबको जानता है एवं जो सबको जानता है वह एक को जानता है । पं. सुखलाल संघवी ने इसका अर्थ द्रव्यपर्यायात्मक पदार्थ को जानने से लिया है अर्थात् जो एक द्रव्य को उत्पाद,व्यय, ध्रौव्यात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक रूप में समानभाव से जानता है वह सर्वज्ञ होता है ।३९५ बाह्य पदार्थों की सर्वज्ञता को पं. सुखलाल संघवी ने अंगीकार नहीं किया है । इस प्रकार पं. सुखलाल संघवी के मत को स्वीकार करने पर बौद्ध एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित सर्वज्ञता में विषय की दृष्टि से कोई भेद नहीं रह जाता है । सर्वज्ञता का प्रश्न सदैव विवाद का विषय रहा है । जगत् के समस्त बाह्य पदार्थों की समस्त पर्यायों को हस्तामलकवत् जानना एक वीतराग या मुक्तिप्राप्त अरिहन्त के लिए निष्प्रयोजन लगता है । जिन्होंने राग-द्वेष समाप्त कर आत्मज्ञान या केवल ज्ञान प्राप्त किया है उन्हें बाह्य पदार्थों से भोग करना या उन्हें निरुद्देश्य जानते रहना उपयुक्त नहीं लगता है । यह अवश्य है कि वे बाह्य पदार्थों की विनश्वरता या उत्पादव्ययता को जानते हैं तथा वीतराग होने के पश्चात् उन्हें कुछ नया जानना भी शेष नहीं रहता है । जानना शेष न रहने के अर्थ में वीतराग को सर्वज्ञ कहा जाय तो अधिक उपयुक्त लगता है ।३९६ यही कारण है कि जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चयनय से आत्मज्ञाता में सर्वज्ञता स्वीकार ३९२. यद् यद् इच्छति बोद्धं वा तत्तद् वेत्ति नियोगतः ।, शक्तिरेवंविधा ह्यस्य प्रहीणावरणो ह्यसौ । -तत्त्वसङ्ग्रह, ३६२८ ३९३. भन्ते नागसेन, बुद्धो सब्बजू सब्बदस्सावी ति? आम, महाराज, भगवा सब्बभू सब्बदस्सावी ति । - मिलिन्दपज्हपालि, पृ०६० ३९४. आचाराङ्ग सूत्र, १.३.४ ३९५.(१) पं० सुखलाल संघवी लिखते हैं - 'जैन परम्परा का सर्वज्ञत्व संबंधी दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समानभाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है।' दर्शन और चिन्तन, द्वितीय खण्ड। पृ. ५५८ (२) सर्वज्ञता को पं० सखलाल जी ने इस प्रकार भी प्रकट किया है - 'जो एक ममत्व, प्रमाद या कषाय को जानता है वह उसके क्रोधादि सभी आविर्भावों, पर्यायों या प्रकारों को जानता है और जो क्रोध, मान आदि सब आविर्भावों को या पर्यायों को जानता है वह उन सब पर्यायों के मूल और उनमें अनुगत एक ममत्व या बंधन को जानता है'-दर्शन और चिन्तन, द्वितीय खण्ड, पृ०५५८ ३९६. इस सम्बन्ध में श्री कन्हैयालाल लोढा का लेख 'सर्वज्ञ की सर्वज्ञता' भी द्रष्टव्य है । वे लिखते हैं-जिसने उत्पाद, व्यय, धौव्यरूप त्रिपदी के तथ्य को जानलिया, हृदयंगम कर लिया, उसने सब कुछ जान लिया अर्थात् उसे कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है। -जीत अभिनन्दन ग्रंथ, द्वितीय खण्ड, पृ०१५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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