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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण २०१ को सविकल्पक मानना ही उचित है ।३८३ ___ वादिदेवसरिने योगिप्रत्यक्ष की उत्पत्ति का बौद्ध दर्शनानुसार निर्देश कर उसका मिथ्यात्वघोषित किया है । भावनाओं के प्रकर्षपर्यन्त अवस्था में योगिज्ञान उत्पन्न होता है । वह भावना दो प्रकार की होती है-श्रुतमयी एवं चिन्तामयी । क्षणिकत्व ,नैरात्म्यादि को विषय करने वाले परार्थानुमान वाक्यों को सुनकर जो भावना उत्पन्न होती है वह श्रुतमयी भावना होती है तथा वह स्वार्थानुमान लक्षणयुक्त चिन्तामयी भावना को उत्पन्न करती है। वह बढ़ती हुई प्रकर्ष पर्यन्तावस्था को प्राप्त करके योगिप्रत्यक्ष को उत्पन्न करती है । वादिदेवसूरि कहते हैं कि बौद्धों के द्वारा स्वीकृत ये दोनों भावनाएं ही मिथ्यारूप हैं अतः उनसे परमार्थ विषयक योगिप्रत्यक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता। ये भावनाएं इसलिए मिथ्या हैं, क्योंकि इनमें क्षणिकत्व ,नैरात्म्य आदि अतथाभूत वस्तुओं का विचार किया जाता है ।३८४ सर्वज्ञता विचार योगिप्रत्यक्ष के सन्दर्भ में जैनदार्शनिक एवं बौद्धदार्शनिकों के सर्वज्ञता विषयक विचारों का अध्ययन भी प्रासंगिक है । जैसी कि पहले चर्चा की जा चुकी है कि जैनदर्शन में अतीन्द्रिय अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेदों में सकल प्रत्यक्ष भी एक प्रकार है जो समस्त घातीकमों के आवरण का क्षय होने पर केवलज्ञान के रूप में प्रकट होता है । केवलज्ञान से त्रिकालवर्ती निखिल द्रव्यों एवं पर्यायों का ज्ञान किया जा सकता है। इसमें इन्द्रिय एवं मन के माध्यम की आवश्यकता नहीं होती,इसलिए यह अतीन्द्रिय भी होता है ।३८५ ___ सूक्ष्म, दूरस्थित एवं अन्तरित पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान करने के लिए समन्तभद्र ने केवलज्ञान को समर्थ माना है तथा अनुमान से उसकी सिद्धि की है।३८६ ज्ञान आत्मा का स्वभाव है,जब दोष एवं ज्ञानावरण का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है तो केवलज्ञान प्रकट होता है ,जिसके द्वारा सम्पूर्ण द्रव्यों का उनकी विभिन्न पर्यायों के साथ साक्षात्कार होता है । अकलङ्क ने भी सर्वज्ञता की सिद्धि की है। वे कहते हैं कि सर्वज्ञ है,क्योंकि उसकी सिद्धि में बाधक प्रमाण का नहीं होना सुनिश्चित है ।३८७ अकलङ्क यह भी प्रतिपादित करते हैं कि सर्वज्ञता को स्वीकार किये बिना अत्यन्त अपरोक्ष अर्थ ज्योतिष,नक्षत्र आदि का अविसंवाद ज्ञान होना संभव नहीं है ।२८८ जैन दार्शनिकों द्वारा सर्वज्ञता की सिद्धि में निरतिशय ज्ञान का भी हेतु दिया गया है । हेमचन्द्राचार्य ३८३. न्यायविनिश्चयविवरण, भाग-१ १०५३३ ३८४. क्षणिकत्वनैरात्म्यादिभावनायाः श्रुतमय्याश्चिन्तामय्याश्च मिथ्यारूपत्वात् । न च मिथ्याज्ञानस्य परमार्थविषययोगि ज्ञानजनकत्वम् । अतिप्रसक्तेः । यथा च न क्षणिकत्वनैरात्म्यादिकं वस्तुतस्तथाग्रे वक्ष्यते ।- स्याद्वादरत्नाकर, पृ० ३६२ ३८५. द्रष्टव्य, इसी अध्याय के जैन प्रत्यक्ष-प्रमाण विवेचन में केवलज्ञान, पृ. १३७ ३८६. सूक्ष्मान्तरितदूराः प्रत्यक्षाः कस्यचिद् यथा। __अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः ।।-आप्तमीमांसा, ५ ३८७. अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणाऽभावात् सुखादिवत् ।- सिद्धिविनिश्चय, पृ०५३७ ३८८. धीरत्यन्तपरोक्षेऽयं न चेत् पुंसां कुतः पुनः। ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादः श्रुताचेत् साधनान्तरम् ॥- सिद्धिविनिश्चय, पृ० ४१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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