________________
२००
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
उत्पन्न होता है,क्योंकि बौद्धों ने चतुःसत्य की भावनाओं को प्रत्येक अवस्था में स्वीकार किया है ।३७७ दूसरी आशंका अकलदेव ने यह उठायी है कि समस्त चित्त एवं चैत्तों के आत्मसंवेदन को प्रत्यक्ष मान कर हित की प्राप्ति एवं अहित का परिहार करने में प्रवृत्त पुरुषों के लिए निद्रा एवं जागृति अवस्था में कोई भेद ही नहीं रहेगा ,क्योंकि तब आत्मसंवेदन के कारण निद्रावस्था में भी सम्यग्ज्ञान पूर्वक पुरुषार्थसिद्धि होने लगेगी।३७८ निद्रावस्था में आत्मसंवेदन के अतिरिक्त सत् का लक्षण नहीं है, इसलिए उस अवस्था में आत्मसंवेदन रहता ही है।
वस्तुतः समस्त ज्ञानों के स्वरूप का व्यवसायात्मक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ही प्रमाण होता है । यदि स्वसंवेदनको निर्विकल्पक स्वीकार किया जायेगा तो निर्णयात्मक ज्ञान का भी उसके द्वारा निर्णयात्मक ज्ञान के रूप में ग्रहण नहीं हो सकेगा। उसका निश्चय करने के लिए किसी अन्य निर्णयात्मक ज्ञान को स्वीकार करना होगा । फलत: अनवस्था दोष आ जायेगा और अर्थक्रिया में प्रवृत्ति करना रूप व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकेगा।३७९ योगिप्रत्यक्ष
- जैनदार्शनिकों का योगिप्रत्यक्ष से विरोध नहीं है ,किन्तु उसकी निर्विकल्पकता से विरोध है । निर्विकल्पक-प्रत्यक्ष में जैनदार्शनिकों ने जिन दोषों का उद्भावन किया है वे समस्त दोष योगिप्रत्यक्ष में भी आते हैं।३८० __वादिराज ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि योगी प्रत्यक्ष सविकल्पक होता है । योगिज्ञान अपनी सत्ता मात्र से विनेय लोगों के लिए प्रमाण नहीं होता है, अपितु उनको हेय,उपादेय तत्त्वों का ज्ञान देने से प्रमाण होता है ।३८१ इसीलिए धर्मकीर्ति कहते हैं कि ज्ञानवान् पुरुष को उसके द्वारा कथित ज्ञान को जानने के लिए खोजा जाता है ।२८२ वादिराज यहां पर यह स्पष्ट करते हैं कि योगिप्रत्यक्ष वाले पुरुष को निर्विकल्पक ज्ञान के कारण नहीं खोजा जाता है ,अपितु उनके सविकल्पक शब्दों से अभिव्यक्त वाणी को जानने के लिए खोजा जाता है । शब्द सविकल्पक होते हैं । अतः योगिप्रत्यक्ष
३७७. अध्यक्षमात्मवित्सर्वज्ञानानामभिधीयते ।
स्वापच्छाद्यवस्थोऽपि प्रत्यक्षी नाम किं भवेत?
विच्छेदं हि चतुःसत्यभावनादिविरुध्यते ।।-न्यायविनिश्चय,१६३-६४ ३७८. सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थमिच्छतां स्वापप्रबोधयोः को विशेषः संभाव्यते यतः
स्वापादौ सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिर्न भवेत्। सिद्धिविनिश्चय, पृ०९६.१०-१२ ३७९.(१) सर्वविज्ञानानां स्वसंवेदनं प्रत्यक्षमविकल्पकं यदि निश्चयस्यापि कस्यचित् स्वत एवाऽनिश्चयात् । निश्चयान्त
रपरिकल्पनायामनवस्थानात् कुतः तत्संव्यवहारसिद्धिः? -लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलयंधत्रय, पृ०६-७
(२) द्रष्टव्य, सिद्धिविनिश्चय टीका भाग-११०९६ ३८०. प्रायशो योगिविज्ञानमेतेन प्रतिवर्णितम्।-न्यायविनिश्चयविवरण,१६८ ३८१. न च तत् स्वसत्तामात्रेण विनेयानां प्रमाणम्, अपितु सोपायहेयोपादेयतत्त्वोपदेशात् ।- न्यायविनिश्चयविवरण, पृ०
५३३.२५ ३८२. ज्ञानवान् मृग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतिपत्तये ।-प्रमाणवार्तिक, १.३२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org