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________________ प्रत्यक्ष प्रमाण लोचनविकल पुरुष को भी दिखाई देना चाहिए। इस दोष का परिहार करने के लिए धर्मकीर्ति एवं धर्मोत्तर ने मानस - प्रत्यक्ष के पूर्व इन्द्रिय- प्रत्यक्ष का समनन्तर कारण के रूप में होना आवश्यक प्रतिपादित किया । वादिराज कहते हैं कि अन्धे को इन्द्रिय- प्रत्यक्ष नहीं होने पर भी स्वसंवेदन के रूप में मानसप्रत्यक्ष होना चाहिए । ३७२ स्वसंवेदन - प्रत्यक्ष का निरसन ३७४ बौद्ध दार्शनिकों की भांति ज्ञान का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष जैन दार्शनिकों को भी अभीष्ट है, किन्तु अन्तर यह है कि बौद्ध दार्शनिक चित्त एवं चैत्त में होने वाले समस्त विकल्पों का आत्मसंवेदन मानते हैं ३७३, जबकि जैन दार्शनिकों के अनुसार निर्णयात्मक ज्ञान का स्वसंवेदन ही प्रमाण होता है 1 बौद्ध दार्शनिक रागादि चित्त विकल्पों का ग्रहण स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से करते हैं तथा उस प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक मानते हुए प्रमाण स्वीकार करते हैं। ३७५ इसके विपरीत जैन दार्शनिक ज्ञान को स्व प्रकाशक रूप में स्वीकार करते हुए भी उसके निर्णयात्मक स्वरूप को ही प्रमाण मानते हैं । १९९ जैन दार्शनिकों की यह विशेषता है कि वे ज्ञान एवं बाह्यार्थ दोनों को स्वीकार करते हैं। वे बाह्य अर्थ का जिस प्रकार अस्तित्व स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार ज्ञान का भी अस्तित्व स्वीकार करते हैं एवं ज्ञान को बाह्यार्थ को जानने में सक्षम मानने के साथ ही स्वयं को जानने में भी समर्थ मानते हैं । ज्ञान जिस प्रकार बाह्याभिमुख होकर बाह्य पदार्थों को जानता है उसी प्रकार आत्माभिमुख होकर अपने आपको भी जानता है। मैं यदि घट को जानता हूं तो मुझे यह भी ज्ञान है कि मैं अपने ज्ञान से घट को जानता हूँ । इस प्रकार ज्ञान बाह्य अर्थ का निश्चायक होने के साथ साथ स्वनिश्चायक भी होता है । ३७६ उसकी स्वनिश्चायकता को प्रमाण के रूप में अंगीकार करने में जैनदार्शनिकों को कोई आपत्ति नहीं है। जैन दर्शन में ज्ञान के पूर्व होने वाला दर्शन भी स्वसंवेदी होता हैं, किन्तु उसे निर्विकल्पक एवं अव्यवसायात्मक होने के कारण जैनदार्शनिकों ने प्रमाण नहीं माना है । बौद्ध सम्मत स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के अप्रामाण्य को लेकर जैन दार्शनिकों ने अनेक शंकाएं खडी की हैं। भट्ट अकलङ्कदेव यह आशंका करते हैं कि समस्त ज्ञानों एवं चैतसिक विकल्पों का स्वसंवेदन स्वीकार करने पर निद्रा एवं मूर्च्छा आदि अवस्थाओं में भी स्वसंवेदन को प्रत्यक्ष मानना होगा । निद्रा एवं मूर्च्छा आदि अवस्थाओं में यदि स्वसंवेदन नहीं होता है तो चतुः सत्य की भावनादि से विरोध ३७२. न्यायविनिश्चयविवरण, पृ० ५३० ३७३. सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनम् । न्यायबिन्दु, १.१० ३७४. निश्चयात्मा स्वतः सिद्धयेत् । - लघीयस्त्रय, १८ ३७५. मानसं चार्थरागादि स्वसंवित्तिरकल्पिका । प्रमाणसमुच्चय (Dignaga, on perception) का. ६ ३७६. (१) स्वोन्मुखप्रतिभासनं स्वस्यव्यवसायः । अर्थस्येव तदुन्मुखतया । घटमहमात्मना वेधि :- - परीक्षामुख, १.६-८ (२) स्वस्य व्यवसायः स्वाभिमुख्येन प्रकाशनं बाह्यस्येव तदाभिमुख्येन, करिकलभकमहमात्मना जानामि । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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