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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
होगा। तभी अन्य इन्द्रियप्रत्यक्ष हो सकेगा, अतः विभिन्न इन्द्रियप्रत्यक्षों एवं विकल्पों के मध्य मानस-प्रत्यक्ष व्यवधान उत्पन्न करेगा।३६५ ___इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के द्वारा ही निर्णयात्मक ज्ञान हो जाता है इसलिए इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं निर्णयात्मक विकल्प के बीच मानस-प्रत्यक्ष को अंगीकार करने की कल्पना व्यर्थ है । उसका प्रत्यक्ष एवं अनुमान से विरोध आता है।३६६
बौद्ध दार्शनिक शान्तभद्र ने मानस-प्रत्यक्ष को स्मृति में कारण माना है। अकलङ्क ने उसका खण्डन करते हुए प्रतिपादित किया है कि इन्द्रियप्रत्यक्ष एवं मानसप्रत्यक्ष का विषय यदि अभिन्न है तो मानस-प्रत्यक्ष भी इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की भांति सन्तान भेद के कारण स्मृति को उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि मानस-प्रत्यक्ष का विषय इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से भिन्न है तो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष स्मृति की भांति मानस-प्रत्यक्ष का उपादान या समनन्तर कारण नहीं हो सकता ।३६७
मानस-प्रत्यक्ष को कुछ बौद्ध दार्शनिकों ने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का ही एक प्रकार माना है, अत: अकलङ्कका कथन है कि जब वेदना आदि का ज्ञान करने वाले स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में मानसप्रत्यक्ष का समावेश हो जाता है तो मानस-प्रत्यक्ष के नाम से एक भिन्न प्रमाण मानना वृथा है ।३६८
यदि आगमप्रसिद्ध होने से ही मानसप्रत्यक्ष को स्वीकार किया गया है३६९ तो उपयुक्त नहीं है, क्योंकि प्रमाण-शास्त्रीय ग्रंथों में इन अनावश्यक बातों को स्थान नहीं है ।३७०
अकलङ्क के विवरणकार वादिराज बौद्धों की ओर से इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं मानस-प्रत्यक्ष में भेद बतलाते हुए कहते हैं कि मानसप्रत्यक्ष निश्चय रूप होता है,तथा “ यह नीला है” “यह पीला है" इत्यादि उल्लेखयुक्त होता है, इन्द्रियज्ञान नहीं । वादिराज इसका निरसन करते हुए कहते हैं कि इन्द्रियज्ञान को ही निश्चयरूप मानना उचित है ,क्योंकि इन्द्रियज्ञान से मानसज्ञान में कोई भेद प्रतीत नहीं होता है। इन्द्रियज्ञान में जिस प्रकार संशयादि होते हैं उसी प्रकारवे मानसज्ञान में भी होते हैं । यदि मानसज्ञान में संशयादि न हों तो समारोप का निवारण करने के लिए अनुमान -प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।३७१ मानसप्रत्यक्ष का खण्डन करते हुए मीमांसक कहते हैं कि यदि कोई मानसप्रत्यक्ष है तो ३६५. क्रमोत्पत्तौ सहोत्पत्तिविकल्पोऽयं विरुध्यते । -न्यायविनिश्चय, १६१ ३६६. अध्यक्षादिविरोधः स्यात् तेषामनुभवात्मनः ।- न्यायविनिश्चय, १६१ ३६७. प्रत्यक्षान्मानसाइते बहिर्नाक्षधियः स्मृतिः।
सत्त्वान्तरवच्चेतत् समनन्तरमस्यकिम् ।।- सिद्धिविनिश्चय, २.५ ३६८. वेदानादिवदिष्टं चेत्कथं नातिप्रसज्यते। -न्यायविनिश्चय,१६२ ३६९. धर्मोत्तर ने इसे आगम प्रसिद्ध कहा है । द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण,.१०४ ३७०. लक्षणं तु न कर्तव्यं प्रस्तावानुपयोगिषु । -न्यायविनिश्चय, १६३ ३७१. नन्वयमेव तस्य तस्माद् भेदो यन्निश्चयरूपत्वम् । निश्चयरूपं हि मानसमवलोक्यते 'इदं नील, इदं पीतम्'
इत्युल्लेखतस्तस्योपलम्भात्न तथेन्द्रियज्ञानस्येति ।-तद्विषये कथं संशयादिःनिश्चयविरोधादितिचेत? मानसविषयेऽपि कथं तदविशेषात् । न भवत्येवेति चेत्, किमिदानीमनुमानेन, संशयादेरनुत्पन्नस्य व्यवच्छेदासम्भवात् । - न्यायविनिश्चयविवरण, भाग-१, पृ०५२५
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