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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण तथा आलम्बनप्रत्यय इन्द्रियप्रत्यक्ष का अनन्तर विषय । अर्थात् मानस-प्रत्यक्ष के पूर्व इन्द्रिय प्रत्यक्ष का होना आवश्यक है। जैन दर्शन में कल्पित अनिन्द्रियप्रत्यक्ष में बिना इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के मन ही सीधा समस्त अर्थों का ग्रहण कर सकता है। इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है । मनःपर्यवज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । जिसमें इन्द्रिय एवं मन दोनों की आवश्यकता नहीं होती । किन्तु सीधे आत्मा के द्वारा दूसरे के मन की पर्यायों अथवा मन में विचारित अर्थों का ज्ञान होता है । जैन दार्शनिक अकलङ्क एवं उनके टीकाकार वादिराज द्वारा किये गये बौद्ध मानस - प्रत्यक्ष का खण्डन यहां प्रस्तुत है । प्रस्तुत खण्डन में धर्मकीर्ति के साथ बौद्ध दार्शनिक शान्तभद्र के मत का भी उपयोग किया गया है। 1 भट्ट अकलङ्क आदि जैन दार्शनिकों ने मानस प्रत्यक्ष' को भी अव्यवसायात्मक होने के कारण अप्रमाण माना है । अकलङ्क कहते हैं कि इन्द्रियप्रत्यक्ष के अनन्तर उत्पन्न होने वाले एवं इन्द्रियप्रत्यक्ष के अनन्तर उत्पन्न विषय को ग्रहण करने वाले स्पष्ट ज्ञानात्मक मानस- प्रत्यक्ष तथा इन्द्रियप्रत्यक्ष में कोई भेद दिखाई नहीं देता है । ३६० बौद्ध दार्शनिक शान्तभद्र ने इन्द्रियप्रत्यक्ष एवं मानसप्रत्यक्ष में भेद प्रतिपादित करते हुए कहा है कि इन्द्रियप्रत्यक्ष सविकल्पक ज्ञान को सन्तान भेद के कारण सीधा उत्पन्न नहीं करता, मानस-प्रत्यक्ष के द्वारा विकल्प उत्पन्न होता है, इसलिए मानसप्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष से भिन्न है । ३६१. अकलङ्क शान्तभद्र के मन्तव्य का निरसन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सविकल्पक ज्ञान से इन्द्रिय प्रत्यक्ष सन्तानभेद के कारण एकदम भिन्न है उसी प्रकार मानस प्रत्यक्ष भी संतान भेद से भिन्न है, अतः मानस प्रत्यक्ष भी विकल्पज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता । ३६२ यदि जितने इन्द्रिय प्रत्यक्ष होते हैं, उनके अनन्तर उतने ही मानस- प्रत्यक्ष होते हैं तो उनमें यह प्रतिसन्धि नहीं हो सकेगी कि "मैं वहीं हूँ जिसने शष्कुली (पूड़ी) का सुगन्ध लेकर भक्षण किया है” । ३६३ यदि एक ही मानसप्रत्यक्ष रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि समस्त विषयों को ग्रहण कर लेता है। तो फिर पांच प्रकार की इन्द्रियों का प्रतिपादन अनावश्यक हो जायेगा। ३६४, 'यदि प्रत्येक इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के अनन्तर क्रम से मानस-प्रत्यक्ष होता है तो इन्द्रिय- प्रत्यक्षों के सहोत्पत्ति का बौद्ध मत खण्डित हो जाता है, क्योंकि इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रियप्रत्यक्ष के पश्चात् मानस प्रत्यक्ष होगा, फिर उसका विकल्प ३६०. अक्षज्ञानानुजं स्पष्टं तदनन्तरगोचरम् । प्रत्यक्षं मानसं चाह भेदस्तत्र न लक्ष्यते ॥ न्यायविनिश्चय, १५७-५८ १९७ ३६१. (१) शान्तभद्रस्त्वाह- यद्यपि प्रत्यक्षतस्तस्य तस्माद् भेदो न लक्ष्यते, कार्यतो लक्ष्यत एव । ततोऽन्यदेव अक्षज्ञानात् तत् कारणम्, तदेव च मानसं प्रत्यक्षम् । - वादिराज, न्यायविनिश्चयविवरण, पृ० ५२६ (२) द्रष्टव्य, सिद्धिविनिश्चयटीका, भाग-१, पृ० १२९ ३६२. अन्तरेणेदमक्षानुभूतं चेन्न विकल्पयेत् । सन्तानान्तरवच्चेतः समनन्तरमेव किम् ॥ - न्यायविनिश्चय, १५८-५९ ३६३. शष्कुली भक्षणादौ चेत्तावन्त्येव मनांस्यपि । यावन्तीन्द्रियचेतांसि प्रतिसन्धिर्न युज्यते ॥ - न्यायविनिश्चय, १५९-६० ३६४. अथैकं सर्वविषयमस्तु किं वाऽक्षबुद्धिभिः । - न्यायविनिश्चय, १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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