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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा व्यवसायात्मक प्रत्यक्ष ही अनुभव का विषय- बौद्ध दार्शनिकों का कथन है कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कल्पना - शून्य होता है तथा व्यवसायात्मकता कल्पनात्मक होती है । इसलिए प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक अथवा कल्पनात्मक नहीं मानना चाहिए। प्रत्यक्ष तो शब्द विकल होता है एवं अर्थसामर्थ्य से उत्पन्न होता है जबकि व्यवसायात्मकता अभिलापरूप प्रतिभास के बिना संभव नहीं है । स्वलक्षण अर्थ एवं शब्द में कोई मेल नहीं है, वे दोनों एक दूसरे से पृथक हैं इसलिए स्वलक्षणजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान अभिलापरहित होने के कारण निर्विकल्पक होता है । वादिदेवसूरि ने इसका निरसन करते हुए प्रतिपादित किया है कि “मैं नील अर्थ को देख रहा हूँ” इस प्रकार उल्लेखनीय व्यवसायात्मक प्रत्यक्ष ही सबके द्वारा सर्वदा अनुभव किया जाता है। अर्थ के शब्दविविक्त होने के कारण उसका प्रत्यक्ष कल्पनाशून्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष अर्थसामर्थ्य से उत्पन्न नहीं होता है, अन्यथा अर्थ के अचेतन होने के कारण उससे उत्पन्न प्रत्यक्षज्ञान को भी अचेतन मानना होगा । ३५५ जैनदर्शन की यह धारणा है कि प्रत्यक्ष ज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होता, वह तो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में प्रकट होता है I १९४ शब्दसंसर्ग के बिना भी व्यवसायात्मकता- बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि स्वलक्षण को विषय करने वाला निर्विकल्पक प्रत्यक्ष उत्पन्न होने पर भी जब तक विधि एवं निषेध द्वारा पश्चाद्भावी विकल्पों को उत्पन्न नहीं करता तब तक "यह नील है, पीत नहीं है" इस प्रकार इदन्तया या अनिदन्तया प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था नहीं हो सकती । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न करके ही व्यवहार का अंग बनता है । प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्प द्वारा प्रतिपत्ता पूर्वकाल में संकेतरूप में गृहीत शब्द सामान्य का स्मरण करता है और वही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के व्यवहार का व्यवस्थापक होता है । वादिदेव इसका निरसन करते हुए प्रतिपादित करते हैं कि प्रत्यक्ष स्वतः ही व्यवसायात्मक होता है, शब्द सम्पर्क की अपेक्षा से नहीं। शब्द-सम्पर्क की अपेक्षा रखने पर तो वर्ण, पद आदि का व्यवसाय नहीं हो सकेगा । उसके व्यवसाय के लिए अन्य शब्द- सम्पर्क या स्मरण की अपेक्षा होगी और उस शब्द के लिए किसी अन्य शब्द के स्मरण की । फलतः अनवस्थादोष उपस्थित होगा । नामान्तर स्मरण के बिना ही वर्णपद का व्यवसाय स्वीकार करने पर वस्तु व्यवसाय भी वाचकनाम-स्मरण के बिना स्वतः ही स्वीकार करना चाहिए । वादिदेव ने यहां विद्यानन्द, अभयदेवसूरि आदि अन्य जैनदार्शनिकों की भांति प्रत्यक्ष में शब्दयोजना का होना आवश्यक नहीं माना है । वादिदेव कहते हैं कि शब्द सम्पर्क के बिना भी ज्ञान विशद एवं व्यवसायात्मक होता है । शब्दसम्पर्क से ही व्यवसायात्मकता हो, ऐसा नहीं है । निकटवर्ती निजांशव्यापी, कालान्तरस्थायी, प्रतिक्षण स्थगित परिणामी, अलक्ष्यमाण परमाणु परिमाणी, अन्य वस्तुओं के सदृश एवं विसदृश आकार वाले कुम्भादि पदार्थों का अवभासन सविकल्पक ही होता है । प्रत्यक्ष की सविकल्पकता मानने के प्रमुख कारण- प्रत्यक्ष को सविकल्पक मानने के वादिदेव ने और भी दो कारण निर्दिष्ट किये हैं- (1) बौद्धाभिमत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष- लक्षण का खण्डन करना एवं ३५५. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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