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________________ प्रत्यक्ष प्रमाण (2) प्रत्यक्ष की शब्द सम्पर्क या अभिलाप संसर्ग योग्यता दिखाना । इसका तात्पर्य है कि अन्य जैन दार्शनिकों की भांति वादिदेव को प्रत्यक्ष में अभिलाप - संसर्ग- योग्यता इष्ट है तथा साभिलापता का होना आवश्यकरूपेण अभीष्ट नहीं है । ३५६ १९५ इस प्रकार वादिदेवसूरि कृत बौद्ध- प्रत्यक्ष आलोचना में कुछ नयी बातें उठी हैं यथा- कल्पनापोढ प्रत्यक्ष - लक्षण में अव्याप्ति दोष, अभ्रान्त पद के प्रयोग की निरर्थकता आदि । 'अभ्रान्त' पद को लेकर जैनदार्शनिकों ने प्रायः खण्डन नहीं किया है, किन्तु वादिदेव ने इस पर विचार कर सम्यग्ज्ञान में उसके आदान को निरर्थक बतलाया है । वादिदेव के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण समारोप का विरोधी एवं व्यवसायात्मक होने के कारण सविकल्पक होता है । प्रत्यक्ष ज्ञान में शब्दयोजना का होन आवश्यक नहीं, तथापि वह अभिलापसंसर्ग के योग्य होता है। स्थिर एवं स्थूल अर्थ के अवभासन की सविकल्पकता सभी जैन दार्शनिकों ने प्रतिपादित की है, किन्तु वादिदेव ने प्रमेय अर्थ के लिए कुछ नये विशेषणों का प्रयोग किया है, यथा निजांशव्यापी, कालान्तरस्थायी, प्रतिक्षण स्थगित परिणामी आदि निर्विकल्प एवं सविकल्पक ज्ञान के एकत्व अध्यवसाय, निर्विकल्पक ज्ञान द्वारा सविकल्पज्ञान की उत्पत्ति आदि का निरसन वादिदेव ने प्रभाचन्द्र की भांति ही किया है, तथा प्रत्यक्ष को सविकल्पक सिद्ध किया है । प्रत्यक्ष भेदों का निरसन यद्यपि प्रत्यक्ष के सामान्यलक्षण कल्पनापोढता एवं अभ्रान्तता का खण्डन होने के साथ ही बौद्ध दार्शनिकों द्वारा कल्पित प्रत्यक्ष भेदों इन्द्रिय, मानस, स्वसंवेदन एवं योगिप्रत्यक्ष का भी खण्डन हो गया है, जैसा कि प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं- "बौद्धों द्वारा परिकल्पित प्रत्यक्ष-लक्षण के अनुपपन्न होने से स्वसंवेदन, इन्द्रियादि प्रत्यक्ष भेदों का वर्णन आकाश कुसुम के सौरभ वर्णन के समान उपेक्षणीय है" ३५७ तथापि यहां पर इन्द्रिय प्रत्यक्ष में श्रोत्र के अप्राप्यकारित्व, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदन एवं योगप्रत्यक्ष का जैन दार्शनिक मन्तव्य के साथ किञ्चित् विशेष परीक्षण अपेक्षित है I श्रोत्र के अप्राप्यकारित्व का खण्डन त्वक्, रसना एवं घ्राण को प्राप्यकारी तथा चक्षु एवं मन को अप्राप्यकारी मानने के सम्बन्ध में जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शन एकमत हैं, किन्तु श्रोत्र के प्राप्यकारित्व एवं अप्राप्यकारित्व को लेकर मतभेद है । ३५८ बौद्ध दार्शनिक श्रोत्र को अप्राप्यकारी मानते हैं तथा जैन दार्शनिक उसे प्राप्यकारी कहते हैं ।. ३५६. द्रष्टव्य, परिशिष्ट ख ३५७. ततो भवत्परिकल्पित प्रत्यक्षलक्षणस्यानुपपत्तेः 'स्वसंवेदनेन्द्रिय' इत्यादिना तद्भेदोपवर्णनमाकाश कुशेशयसीरभव्यावर्णनप्रख्यमित्युपेक्षते । - न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-१, पृ० ५१.१७ ३५८. (क्) १. पुट्ठं सुणेइ सद्दं रूवं पुण पासइ अपुढं तु । गंध रसं च फासं च बद्धं पुढं वियागरे । - नन्दीसूत्र, ८५ एवं द्रष्टव्य, विशेषावश्यक भाष्य २०४-२१२, २. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा५, ३. सर्वार्थसिद्धि - १.१९ पृ० ८२ (ख) १. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण ९५, २. चक्षुः श्रोत्रमनसामप्राप्तार्थप्रकाशकत्वम् । न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८३ एवं स्याद्वादरत्नाकर, पृ० ३३३, ३. चक्षुश्रोत्रमनसामप्राप्तार्थकारित्वम् । - तत्त्वबोधविधायिनी, पृ० ५४५ (ग) न्याय, वैशेषिक, सांख्य एवं मीमांसा दर्शनों में पांचो इन्द्रियों को अर्थ का प्राप्यकारी माना गया है । द्रष्टव्य, न्यायसूत्र, ३.१.३०, प्रशस्तपादभाष्य, न्यायकन्दली, पृ० २३, सांख्यसूत्र १.८७, शावर भाष्य सूत्र १.१.४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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