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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण में लेते हैं। निर्विकल्पक ज्ञान में अविसंवाद सिद्ध नहीं है ,क्योंकि उसका ग्राह्य एवं प्राप्य स्वलक्षण विषय भिन्न होता है । विकल्पात्मक ज्ञान में यह दोष नहीं है । प्रभाचन्द्र ने भी विद्यानन्द व अभयदेवसूरि की भांति विकल्प में शब्द योजना को आवश्यक नहीं माना है तथा समस्त जैन दार्शनिकों की भांति विकल्पों की संहृत अवस्था में स्थिर एवं स्थूल अर्थ का ही प्रत्यक्ष अंगीकार किया है। वादिदेवसूरि वादिदेवसूरि ने भी बौद्ध प्रत्यक्ष-लक्षण पर पर्याप्त विचार किया है ,किन्तु उनके अधिकांश तर्क पूर्ववर्ती अभयदेव, प्रभाचन्द्र आदि दार्शनिकों के ग्रंथों पर आधारित हैं । प्रभाचन्द्र के अनेक तकों को वादिदेवसूरि ने ज्यों का त्यों अपना लिया है३५१ ,किन्तु वादिदेव का प्रस्तुतीकरण अधिक व्यवस्थित एवं विशद है तथा उनकी भाषा भी अधिक ललित और प्रसन्न हैं । यहां वादिदेवसूरि के वे तर्क प्रस्तुत हैं,जो कुछ नवीनता एवं मौलिकता लिए हुए हैं। प्रत्यक्ष-लक्षण में अव्याप्ति दोष-वादिदेवसूरि ने कल्पनापोढ प्रत्यक्षलक्षण में अव्याप्ति दोष बतलाया है,क्योंकि इस लक्षण में अन्य दार्शनिकों द्वारा गृहीत सविकल्पक प्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष रूप में समावेश नहीं हो पाता । वे कहते हैं कि तथागत के अतिरिक्त अन्य दार्शनिक सविकल्पक ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानते हैं ,अतःप्रत्यक्ष शब्द सविकल्पक ज्ञान में भी प्रसिद्ध है । सविकल्पक ज्ञान का निराकरण करके बौद्ध भी निर्विकल्पक ज्ञान की कल्पना नहीं कर सकते । इसलिए उनके द्वारा प्रतिपादित कल्पनापोढ प्रत्यक्षलक्षण अव्याप्तिदोष युक्त है ।२५२ । 'अप्रान्त' पद निरर्थक-धर्मकीर्ति के प्रत्यक्षलक्षण 'कल्पनापोढमभ्रान्तम्' में विद्यमान 'अभ्रान्त' पद को भीवादिदेव ने निरर्थक सिद्ध किया है । वे कहते हैं कि सम्यग्ज्ञान अभ्रान्त होता है अतःप्रत्यक्षलक्षण में अभ्रान्त पद के पुनः सन्निवेश का कोई औचित्य नहीं है । कल्पनापोढ होने पर भी यदि चलते हुए वृक्षादि का ज्ञान प्रान्त होता है ,इसलिए उसके निराकरणार्थ अभ्रान्त पद का प्रयोग किया गया है तो यह तो बौद्धों का वाक्प्रपंचमात्र है । चलते हुए वृक्षादि का ज्ञान मिथ्याज्ञान है अतःविसंवादक है,ऐसा प्रतिपादित करके भी बौद्ध पर्यायान्तर से अप्रान्त पद द्वारा प्रत्यक्ष-लक्षण में उसका पुनः सन्निवेश करके वाक्व्यंसकता प्रकट करते हैं।३५३ प्रत्यक्ष की व्यवसायात्मकता-वादिदेवसूरि ने प्रत्यक्ष की व्यवसायात्मकता या निश्चयात्मकता के दो हेतु प्रस्तुत किये हैं। पहला तो यह है कि वह संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रूप समारोप का विरोधी होता है इसलिए वह व्यवसायात्मक होता है। दूसरा यह कि वह प्रमाण होता है इसलिए व्यवसायात्मक होता है । ३५४ ३५१. तुलनीय, स्याद्वादरलाकर पृ०७८-८८ एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड भाग-१ पृ०८७१०९ ३५२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख ३५३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख ३५४. तद्व्यवसायस्वभावं समारोपपरिपंथित्वात् प्रमाणत्वाद् वा ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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