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________________ १९२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रकार सामान्यलक्षण है, उसी प्रकार विकल्प का भी विषय सामान्यलक्षण है। यदि अनुमान सामान्यलक्षण का ग्रहण करता है एवं स्वलक्षण के रूप में उसका अध्यवसाय करता है तथा दृश्य एवं विकल्प्य अर्थ की एकता बताकर प्रवृत्ति कराता है इसलिए प्रमाण है,तो विकल्प में भी यह बात समान है.अतः उसे भी प्रमाण मानना चाहिए। 9. शब्द संसर्ग के योग्य पदार्थ का प्रतिभास कराने से भी विकल्प को अप्रमाण कहना असमीचीन है ,क्योंकि अनुमान में भी शब्द संसर्गता है । अतःउसे भी विकल्प के समान अप्रमाण मानना पड़ेगा। 10. शब्दजन्य होने से भी विकल्प को अप्रमाण कहना उचित नहीं है ,क्योंकि फिर तो शब्दप्रत्यक्ष को भी अप्रमाण मानना होगा। 'विकल्प ज्ञान ग्राह्य अर्थ के बिना शब्दमात्र से उत्पन्न होता है यह कथन भी समुचित नहीं है क्योंकि अर्थ के होने पर ही नीलादि विकल्प देखे जाते हैं। यदि कोई विकल्प बिना अर्थ के भी उत्पन्न होता है तो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी ऐसा होता है । वहां अर्थाभाव होने पर भी द्विचन्द्र आदि का ज्ञान देखा जाता है। यदि द्विचन्द्र आदि का प्रत्यक्ष प्रान्त है तो विकल्प भी इसी प्रकार अर्थाभाव में उत्पन्न होने पर प्रान्त कहा जा सकता है ।३४८ बौद्ध दार्शनिक मानते हैं कि विकल्प एवं शब्द में कार्यकारण भाव का नियम है ।अर्थात् शब्द कारण है एवं विकल्प उसका कार्य है।३४९ प्रभाचन्द्र इसका निरसन करते हुए कहते हैं कि बौद्धमतानुसार तो किसी नीलादि पदार्थ को देखते हुए पुरुष को पूर्वानुभूत तत्सदृश नीलादि की स्मृति न हो सकेगी,तथा उस वस्तु के नाम विशेष का स्मरण भी न होने से उसके साथ वाच्य-वाचक सम्बन्ध न बन सकेगा, फलतः उस वस्तु को नीलादि नाम न दिया जा सकेगा और उसके अभाव में उसका अध्यवसाय न हो सकेगा । परिणामस्वरूप समस्त जगत् अविकल्पात्मक हो जायेगा।३५० सारांश यह है कि प्रभाचन्द्र के मत में जगत् का व्यवहार विकल्पात्मक ज्ञान से ही होता है, निर्विकल्पात्मक ज्ञान से नहीं । विकल्पात्मक ज्ञान का प्रयोग प्रभाचन्द्र ने अकलङ्क आदि के समान निश्चयात्मक ज्ञान के अर्थ में किया है । निर्विकल्पक ज्ञान विकल्पात्मक ज्ञान को उत्पन्न करने में भी समर्थ नहीं होता है,क्योंकि जो स्वयं निश्चयात्मक नहीं है वह निश्चयात्मक विकल्पज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता । विद्यानन्द व अभयदेव के समान निर्विकल्प एवं सविकल्पक का एकत्व अध्यवसाय भी प्रभाचन्द्र को स्वीकृत नहीं है । एकत्व अध्यवसाय के मत का प्रभाचन्द्र ने विविध प्रकार से निरसन कर विकल्पात्मक ज्ञान को ही अनुभवसिद्ध एवं प्रवर्तक प्रतिपादित किया है । प्रभाचन्द्र के अनुसार विकल्पात्मक प्रत्यक्ष ही विशद,स्फुट,एवं स्पष्टाकार होता है । संशयादि विकल्पों को वे प्रमाण नहीं मानते । जो अविसंवादी एवं स्व -पर व्यवसायी विकल्पात्मक ज्ञान होता है उसे ही वे प्रमाण -कोटि ३४८. (१) द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० १०६-१०९ (२) इन सब बिन्दुओं का निरूपण वादी देवसूरि ने भी किया है । द्रष्टव्य, स्याद्वादरलाकर, पृ० ८७-८८ ३४९. विकल्पयोनयः शब्दाः विकल्पाः शब्दयोनयः । ३५०. द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ०११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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