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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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2. गृहीतग्राही होने से भी विकल्प अप्रमाण नहीं है अन्यथा ,अनुमान भी अप्रमाण हो जायेगा,क्योंकि अनुमान के ग्राहक व्याप्तिज्ञान एवं योगिप्रत्यक्ष भी गृहीतग्राही होते हैं । इस प्रकार क्षणक्षय के अनुमान का प्रामाण्य भी नहीं हो सकेगा,क्योंकि प्रत्यक्ष द्वारा गृहीत शब्द,रूप आदि का ही अनुमान किया जाता है।
बौद्ध कहते हैं कि धर्मी के स्वरूप को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष द्वारा शब्द का ग्रहण होने पर भी क्षणक्षय (क्षणिकत्व) का ग्रहण नहीं होता। प्रभाचन्द्र कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो एक ही शब्द-धर्मी में दो विरुद्ध धर्मों का अध्यास हो जायेगा - शब्द का ग्राह्य होना एवं क्षणिकता का अग्रहण होना जो उपयुक्त नहीं है। 3. असत् में प्रवर्तक होने से भी विकल्प को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता,क्योंकि अतीत एवं अनागत काल में विकल्पों के असत् होने पर भी स्वकाल में तो वे सत् होते ही हैं । फिर भी यदि विकल्प अप्रमाण माना जाय तो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के भी अप्रामाण्य का प्रसंग उपस्थित होता है ,क्योंकि वह भी प्रत्यक्षज्ञान के समय नहीं रहता है। 4. हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार में विकल्प असमर्थ है ,इसलिए वह अप्रमाण है ,ऐसा कथन भी असंगत है,क्योंकि विकल्प से ही इष्ट अर्थ की प्रतिपत्ति होती है,उसमें प्रवृत्ति होती है एवं फिर प्राप्ति होती है तथा अनिष्ट अर्थ से निवृत्ति होती है,ऐसा देखा जाता है । यदि विकल्प में कभी कभी अर्थ प्रापकता का अभाव होता है तो वह तो निर्विकल्पक में भी होता है ,क्योंकि अर्थप्राप्ति के अनिच्छुक व्यक्ति को निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अर्थ-प्राप्ति के लिए प्रवृत्त नहीं करता। 5. विकल्प कभी कभी विसंवादी भी होता है इसलिए उसे अप्रमाण कहा जाय तो भी उचित नहीं है, क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी कभी कभी विसंवादिता पायी जाती है,यथा तिमिररोगादि से युक्त नेत्रवाले पुरुष को अर्थाभाव में भी अर्थ दिखाई देता है। यदि यह प्रत्यक्ष विसंवादी नहीं, प्रान्त है अतः अप्रमाण है तो हम जैन भी प्रान्त विकल्प को प्रमाण नहीं मानते हैं। 6. समारोप का निषेधक न होने से विकल्प को अप्रमाण कहना भी उचित नहीं है ,क्योंकि विकल्प के विषय में तो निश्चयात्मकता के कारण समारोप होता ही नहीं है। वह तो समारोप का विरोधी है।३४७ 7. 'विकल्प व्यवहार के लिए अनुपयोगी है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता ,क्योंकि सारे व्यवहार विकल्पमूलक ही होते हैं। 8. विकल्प का विषय स्वलक्षण नहीं है, इसलिए भी विकल्प को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता,क्योंकि अनुमान का भी विषय स्वलक्षण नहीं है,तथापि बौद्ध उसे प्रमाण मानते हैं। अनुमान का विषय जिस ३४७. तनिश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ।-परीक्षामुख, १.३
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