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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
वह प्रमाण है ,इस कथन से विरोध उत्पन्न होगा। दूसरी बात यह है विकल्प के वासना विशेष से पैदा होने पर प्रत्यक्ष के रूपादिविषयों का प्रतिनियम नहीं हो सकता । यदि होता है तो मनोराज्यादि विकल्प से भी प्रत्यक्ष के विषय का प्रतिनियम होने लगेगा । यदि प्रत्यक्ष के सहकारी वासनाविशेष से उत्पन्न रूपादि विकल्प से उनका (रूपादि का) नियमन होता है तो स्वलक्षण विषय का भी उसी से नियमन होना चाहिए।३४५ विकल्पात्मक ज्ञानहीप्रमाण-प्रभाचन्द्र अन्त में विकल्पात्मक ज्ञान को ही प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित करते हैं तथा उसको प्रमाण स्वीकार करने के लिए अनेक हेतु प्रस्तुत करते हैं,यथा - विकल्प प्रमाण है - (1) संवादक होने से (2) अर्थ के ज्ञान में साधकतम होने से,(3) अनिश्चित अर्थ का निश्चायक होने से एवं (4) अनुमान की भांति प्रतिपत्ता (प्रमाता) के द्वारा अपेक्षणीय होने से ।
निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है,क्योंकि वह भी सन्निकर्ष के समान (1) संवादक नहीं है (2) अर्थ के ज्ञान में साधकतम नहीं है (3) अनिश्चित अर्थ का निश्चायक नहीं है तथा (4) वह प्रमाता द्वारा अपेक्षणीय नहीं है ।३४६
प्रभाचन्द्र विकल्प को प्रमाण न मानने के पक्ष में बौद्धों की ओर से दस कोटियां प्रस्तुत करते हैं ,यथा विकल्प अप्रमाण है ,क्योंकि वह (1) स्पष्ट आकार से रहित होता है (2) गृहीतग्राही होता है (3) असत् में प्रवर्तक होता है (4) हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार में समर्थ नहीं होता है (5) कदाचित् विसंवादी होता है (6) समारोप का निषेधक नहीं होता (7) व्यवहार में अनुपयोगी होता है (8) स्वलक्षण को विषय नहीं करता (9) शब्द संसर्ग के योग्य प्रतिभासवाला होता है (10) शब्द मात्र से जन्य होता है।
प्रभाचन्द्र ने इन बिन्दुओं का क्रमशः खण्डन कर विकल्प का प्रामाण्य सिद्ध किया है। 1. स्पष्ट आकार से रहित होने के कारण विकल्प अप्रमाण नहीं है.क्योंकि उसे अप्रमाण मानने पर तो काच,अभ्रक आदि से व्यवहित पदार्थों एवं दूरवर्ती वृक्षादि के प्रत्यक्ष (योगिप्रत्यक्ष) को भी अप्रमाण मानना पड़ेगा। यदि अज्ञात वस्तु का प्रकाशक एवं संवादक होने से काच ,अभ्रक आदि से व्यवहित अर्थ एवं दूरस्थित वृक्षादि का प्रत्यक्ष भी प्रमाण है,तो इस प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण के अतिरिक्त अन्य सविकल्पक प्रमाण मानना पड़ेगा,क्योंकि यह अस्पष्ट होने से बौद्धों के अनुसार प्रत्यक्ष तो है नहीं, एवं अलिंगजत्व होने से अनुमान भी नहीं है, अतः प्रमाणान्तर की कल्पना का प्रसंग उपस्थित होता है।
३४५. द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० १०३-१०४ ३४६. ततो विकल्पः प्रमाणं संवादकत्वात् , अर्थपरिच्छित्तो साधकतमत्वात अनिश्चितार्थ-निश्चायकत्वात,
प्रतिपत्रपेक्षणीयत्वाच्च अनुमानवत, न तु निर्विकल्पकं तद्विपरीतत्वात्सत्रिकर्षादिवत्। प्रमेयकमलमार्तण्ड,भाग१पृ०१०३-१०५
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