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प्रत्यक्ष-प्रमाण
का भी संकेत कर दियाहै ।३३३
सारांश यह है कि प्रभाचन्द्र इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष-प्रमाण को निश्चयात्मक ज्ञान मानकर भी उसे शब्दयुक्त,अस्पष्ट आकारवाला,अर्थसन्निधि से निरपेक्ष,अनक्षप्रभव,एवं धर्मान्तर के आरोप से युक्त नहीं मानते हैं । इतना होते हुए भी वे प्रत्यक्ष को सामान्यविशेषात्मक या जात्यादि के उल्लेख से युक्त मानते हैं।
प्रभाचन्द्र प्रतिपादित करते हैं कि प्रत्यक्षप्रमाण अन्य प्रमाण की अपेक्षा किये बिना वस्तु के तथाभाव का प्रकाशक होता है ,किन्तु अविकल्पक ज्ञान नीलादि में क्षणिकता का ज्ञान कराने के लिए विकल्प (अनुमान) की अपेक्षा करता है । अतःवस्तु व्यवस्था में परव्यापार की अपेक्षा रखने के कारण सन्निकर्ष आदि के समान अविकल्पक ज्ञान भी अप्रमाण है ।३३४ एकत्व अध्यवसाय का निरसन बौद्ध - विकल्प एवं निर्विकल्प ज्ञान के युगपत् होने अथवा शीघ्र होने से दोनों में एकत्व का अध्यवसाय होता है जिससे विकल्प में वैशद्य की प्रतीति होती है,जबकि वस्तुतः निर्विकल्पक ज्ञान विशद होता है।३३५ प्रभाचन्द्र- बौद्धों का कथन उचित नहीं है,क्योंकि विकल्प के अतिरिक्त निर्विकल्प की प्रतीति नहीं होती है अतः उनमें एकत्व का अध्यवसाय संभव नहीं है। दोनों के भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर ही मैत्र में चैत्र की भांति एक का दूसरे पर आरोप किया जा सकता है।
प्रत्यक्ष से विकल्प अस्पष्ट प्रतिभास वाला एवं निर्विकल्प स्पष्ट प्रतिभास वाला प्रतीत नहीं होता है। फिर भी बौद्ध अनुभूयमान वैशध को छोड़कर अननुभूयमान निर्विकल्प में विशदता की कल्पना क्यों करते हैं? प्रभाचन्द्र ने एकत्व अध्यवसाय का खण्डन करते हुए अनेक प्रश्न उठाएं हैं । (1) दीर्घ शष्कुली (बड़ी पूडी) खाते समय रूपादि पांच विषयों की साथ उत्पत्ति होती है अतः उनमें भी अभेद अध्यवसाय होना चाहिए। यदि भिन्न-भिन्न इन्द्रियों का विषय होने के कारण उनका अभेद अध्यवसाय नहीं होता है तो विषयभेद की स्थिति तो इनमें भी है । निर्विकल्प का विषय स्वलक्षण है एवं विकल्प का विषय संतान है । (2) यदि लघुवृत्ति अर्थात् शीघ्रतापूर्वक होने के कारण विकल्प एवं निर्विकल्प में अभेद मालूम पड़ता है तो गधे के रेंकने में भी अभेद अध्यवसाय का प्रसंग उपस्थित होता है। (3) यदि विकल्प एवं निर्विकल्प के सादृश्य के कारण उनके भेद की प्राप्ति नहीं होती है तो वह सादृश्य कैसा है ? विषय की अभेदता का या ज्ञानरूपता का? विषय की अभदेता का तो सादृश्य हो नहीं सकता क्योंकि विकल्प का विषय संतान एवं निर्विकल्प का विषय स्वलक्षण है ।यदि ३३३. द्रष्टव्य, विद्यानन्द कृत बौद्ध-प्रत्यक्ष आलोचना , पृ. १५५ ३३४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख ३३५. मनसोर्युगपवृत्तेः सविकल्पाविकल्पयोः ।
विमूढो लघुवृत्तेर्वा तयोरक्यं व्यवस्यति ।।- प्रमाणवार्तिक, २.१३३
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