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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
ज्ञानरूपता का सादृश्य है तो नील पीतादि ज्ञानों का भी भेद रूप से उपलम्भ नहीं होगा । ३३६ (4) यदि अभिभव के कारण दोनों की पृथक् प्रतीति नहीं होती है तो किसके द्वारा किसका अभिभव होता है ?३३७
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प्रभाचन्द्र ने निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञान के एकत्व अध्यवसाय पर आगे विभिन्न प्रकार विचार किया है।
निर्विकल्प एवं सविकल्प का एकत्व अध्यवसाय किस रूप होता है ? (1) निर्विकल्प एवं सविकल्प का एक ही विषय होने रूप (2) एक के विषय को दूसरे के द्वारा ग्रहण करने रूप अथवा (3) एक का दूसरे विषय पर अध्यारोप होने रूप ? प्रभाचन्द्र ने इन तीनों प्रकार के एकत्व अध्यवसाय का निराकरण किया है ।
1 - निर्विकल्प एवं सविकल्पक ज्ञान का विषय एक नहीं है। विकल्प का विषय सामान्य एवं निर्विकल्प का विषय विशेष है। दृश्य एवं विकल्प्य विषय का एकत्व अध्यवसाय होने के कारण भी दोनों का विषय एक कहना उचित नहीं है। क्योंकि इनके एकत्व का अध्यवसाय संभव नहीं है। यदि दोनों का ग्रहण किये बिना एकत्व का अध्यवसाय सम्भव हो तो अतिप्रसंग होगा। यदि सादृश्य के कारण एक विषय का अन्य पर आरोप किया जाता है तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि वस्तु (दृश्य) एवं अवस्तु (विकल्प्य) का नील एवं खरविषाण की भांति सादृश्य नहीं हो सकता, अतः सविकल्प एवं निर्विकल्पक ज्ञान का विषय एक नहीं है ।
2- विकल्प एवं निर्विकल्प में एक के द्वारा अन्य के विषय का ग्रहण किया जाना भी समान कालभावी एवं दोनों के स्वतंत्र होने से युक्तियुक्त नहीं है ।
3- विकल्प या निर्विकल्प का एक दूसरे पर अध्यारोप भी असम्भव है। यदि विकल्प पर निर्विकल्प का अध्यारोप किया जाय तो विकल्प व्यवहार का उच्छेद हो जायेगा और निर्विकल्प पर विकल्प का आरोप किया जाय तो निर्विकल्पता का उच्छेद हो जायेगा ।
यदि विकल्प में निर्विकल्पक के आरोप से विशदता का व्यवहार होता है तो उसी प्रकार निर्विकल्प . में विकल्प का अध्यारोप करने से अविशदता का व्यवहार क्यों नहीं माना जाता ? यदि निर्विकल्प द्वारा विकल्प का अभिभव करने से विशदता रहती है तो यह तो विकल्प द्वारा निर्विकल्प का अभिभव करने पर भी मानी जा सकती है। यदि यह माना जाय कि निर्विकल्प से विकल्प का अभिभव हुआ, तो वह अभिभव किस प्रकार होगा ? (क) सहभाव के कारण, (ख) अभिन्न विषय होने से, अथवा (ग) अभिन्न सामग्री से जन्य होने के कारण ?
३३६. द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१ पृ० ८७-८९
३३७. इस तर्क का अभयदेवसूरि कृत बौद्ध- प्रत्यक्ष खण्डन में निरूपण किया जा चुका है । द्रष्टव्य, पृ. १७१ प्रभाचन्द्र कृत खण्डन के लिए द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१ पृ० ८९-९१
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