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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा तो ठीक इसी प्रकार है जैसे तलवार से कोश में तीक्ष्णता का होना मानना । विलक्षण सामग्री से उत्पन्न होने के कारण यदि व्यवसायकता मानी जाती है तो वह तो सविकल्प निर्विकल्प में भेद सिद्ध होने पर सिद्ध होगी । विकल्प के बिना अविकल्पक का स्वरूप स्वप्न में भी प्रसिद्ध नहीं है । स्व एवं अर्थ का व्यवसायात्मक एक ही ज्ञान इन्द्रियादि सामग्री से उत्पन्न अनुभव किया जाता है। उनमें स्वरूप का भेद तथा सामग्री का भेद किसी को कभी भी प्रतिभासित नहीं होता । यदि होता है तो बुद्धि एवं चैतन्य में भेद मानने वाले सांख्य का प्रतिक्षेप नहीं किया जा सकता। यदि इनके एकत्व अध्यवसाय कारण भेद का ज्ञान नहीं होता है तो यह तर्क तो दोनों स्थानों पर समान है । ३३१ १८४ इस प्रकार प्रभाचन्द्र कल्पना का अर्थ निश्चयात्मक ज्ञान करते हैं। वे किसी भी अनिश्चयात्मक ज्ञान को अर्थक्रिया में प्रवर्तक नहीं होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं। निर्विकल्पक ज्ञान निश्चयात्मक नहीं होता है, अतः वह व्यवहार का अंग नहीं होता है। निश्चयात्मक ज्ञान निर्विकल्पक नहीं कहा जा सकता । निश्चयात्मक रूप में जिस ज्ञान की प्रतीति होती है वह सविकल्पक ही होता है । निर्विकल्पक ज्ञान विकल्पज्ञान को उत्पन्न करके भी व्यवहार का अंग नहीं बन सकता, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान द्वारा विजातीय विकल्पज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं है। निर्विकल्पक ज्ञान स्वयं निश्चयात्मक नहीं होता है, अतः वह अन्य निश्चयात्मक ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता । जाति आदि का उल्लेख कल्पना है, इसको स्वीकारने में भी प्रभाचन्द्र को कोई आपत्ति नहीं है । प्रभाचन्द्र कहते हैं कि विशेषणविशेष्य भूत जात्यादि पदार्थों के सम्बन्ध में अज्ञान का नाश करने वाले निश्चयात्मक ज्ञान को विकल्पात्मक कहना उचित है । बौद्ध मन्तव्य के अनुसार प्रत्यक्ष-प्रमाण जात्यादि से विशिष्ट अर्थ का ग्राहक नहीं होता है। उसका विषय निरंश स्वलक्षण परमाणु होते हैं, जबकि जैन दार्शनिक मत में सामान्य विशेषात्मक अथवा विशेषणविशेष्यभूतात्मक अर्थ का ही प्रमाण के द्वारा निश्चय किया जाता है। जैनदार्शनिक विशेषणविशेष्यभूत अर्थ का प्रमाण में प्रतिबिम्ब नहीं मानते हैं, किन्तु यथावस्थित अर्थ का प्रमाण को प्रकाशक मानते हैं। अतः यहां जात्यादि उल्लेख का अभिप्राय विशेषणविशेष्यभावयुक्त अर्थ का ग्रहण करना है। इसलिए प्रभाचन्द्र कहते हैं कि 'सफेद गाय चरती है' इत्यादि ज्ञान जात्यादिविशिष्ट होते हैं। इनकी प्रतीति का अपलाप नहीं किया जा ,३३२ सकता । प्रत्यक्ष जात्यादि विशिष्ट अर्थ का ग्राहक होता है, यह कहकर प्रभाचन्द्र ने भी विद्यानन्द के समान बौद्ध प्रत्यक्ष के विषय स्वलक्षण का निराकरण कर दिया है तथा जैन सम्मत सामान्यविशेषात्मक प्रमेय ३३१. (१) द्रष्टव्य, परिशिष्ट ख (२) एकत्व अध्यवसाय विषयक ऊहापोह विद्यानन्द एवं अभयदेवसूरि कृत बौद्ध प्रत्यक्षनिरसन में किया जा चुका है । प्रभाचन्द्र कृत खण्डन के लिए आगे द्रष्टव्य । ३३२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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