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प्रत्यक्ष प्रमाण
करा सकता ।
३२४
३२९
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अतिरिक्त विकल्प को उत्पन्न करने के कारण प्रवर्तक होता है अतः प्रमाण है,३२५ ऐसी मान्यता भी श्रद्धामात्र है । क्योंकि जिस निर्विकल्पक को अपना स्वरूप ही ज्ञात नहीं है वह सन्निकर्ष ३२६ के सदृश ही है। यदि निर्विकल्पक को बौद्ध प्रवर्तक मानते हैं तो सन्निकर्ष को भी प्रवर्तक मानना होगा । बौद्ध कहते हैं कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष चेतन होता है एवं सन्निकर्ष अचेतन होता है, किन्तु उनमें ऐसा भेद प्रतीत नहीं होता । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी चेतन रूप में अप्रसिद्ध है । ३२७ 'जो पर निरपेक्ष एवं स्वरूप का उपदर्शक हो वही चेतन कहा जाता है और निर्विकल्प प्रत्यक्ष स्वप्न में भी परनिरपेक्ष होकर स्वरूप का उपदर्शन नहीं कराता अतः वह चेतन नहीं हो सकता है तथा सन्निकर्ष से उसमें कोई विशेषता नहीं मानी जा सकती। सन्निकर्ष से निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में कोई विशेषता तभी हो सकती है जब उसे व्यवसायात्मक माना जाए ३२८ अन्यथा निर्व्यापार होने के कारण अननुभूयमान स्वरूप होने से इसे सन्निकर्ष से भिन्न रूप में प्रसिद्ध नहीं कहा जा सकता। यदि बौद्ध कहें कि 'मै देखता हूं' इस प्रकार का विकल्प ही प्रत्यक्ष का व्यापार है, अतः उसे निर्व्यापार नहीं कहा जा सकता है, ३३० तो उनका यह कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि तब प्रत्यक्ष की व्यवसायात्मकता माननी होगी। बौद्धों के द्वारा 'व्यापार' प्रत्यक्ष से भिन्न अंगीकार नहीं किया जाता है, उसका स्वभाव होने के कारण । यदि प्रत्यक्ष का कार्य होने से व्यापार को उससे भिन्न माना जाता है तो वह निर्विकल्प प्रत्यक्ष का व्यापार किस प्रकार है ? पुत्र, पिता का व्यापार नहीं होता है । यदि हो तो भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में व्यवसायस्वभावता माने बिना उससे उत्पन्न विकल्प में व्यवसायकता नहीं मानी जा सकती। यदि विकल्प में बोधरूप होने से व्यवसायकता है तो बोध तो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी है अतः उसको भी व्यवसाय स्वभाव मानना चाहिए। बोधरूपता में दोनों के समान होने पर भी 'जिस निर्विकल्प का साक्षात् अर्थ (स्वलक्षण) में ग्रहण व्यापार होता है वह निश्चय नहीं करता, और उस निर्विकल्प के व्यापार से उत्पन्न विकल्प निश्चय करता है - ऐसा मानना
३२४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
३२५. अविकल्पमपि ज्ञानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत् ।
निःशेषव्यवहाराङ्गं तद्द्वारेण भवत्यतः ॥ - तत्त्वसंग्रह, १३०६
३२६. न्यायदर्शन द्वारा मान्य प्रत्यक्षप्रमाण के भेदों में एक इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष भी है। सन्निकर्ष के प्रामाण्य का बौद्ध स्वयं खण्डन करते हैं।
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३२७. प्रभाचन्द्र का यह कथन उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि जैन मान्यता के अनुसार निर्विकल्पक दर्शन को भी चेतन का गुण माना गया है अतः निर्विकल्प प्रत्यक्ष को चेतन रूप में अप्रसिद्ध कहना समुचित नहीं है।
३२८. तुलनीय - अधिगमोऽपि व्यवसायात्मैव, तदनुत्पतौ सतोऽपि दर्शनस्य साधनान्तरापेक्षया सन्निधानाऽ भेदात् सुषुप्तचैतन्यवत् । - अष्टशती, अष्टसहस्त्री, पृ०७५
३२९. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
३३०. बौद्ध दार्शनिक प्रमाण को सव्यापार मानते हैं, यथा
सव्यापारप्रतीतत्वात् प्रमाणं फलमेव सत् । - प्रमाणसमुच्चय, १.९
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