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________________ १८२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रत्यक्ष का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता।३२१ इस प्रकार प्रभाचन्द्र ने इन्द्रियजन्य सविकल्पक प्रत्यक्ष को बौद्धों के द्वारा प्रतिपादित कल्पना के दोष से बचाकर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को ही दूषित बतलाया है। प्रभाचन्द्र ने कल्पना को निश्चयात्मक तथा जाति आदि का उल्लेख करने के रूप में स्वीकृत किया है जिससे सविकल्पक प्रत्यक्ष का प्रामाण्य ही अधिक पुष्ट हुआ है। प्रभाचन्द्र अनिश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं ,इसलिए वे कहते हैं कि यदि कल्पना का अर्थ निश्चय है तो यह सत्य है क्योंकि प्रमाण का अनिश्चयात्मक होना उचित नहीं है। निर्विकल्पक ज्ञान स्व एवं पर का निश्चायक नहीं होता इसलिए वह प्रमाण नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष स्व एवं अर्थ का व्यवसायक होता है,प्रमाण होने से,अनुमान के समान । जिसका स्वयं का स्वरूप निश्चित नहीं होता एवं जो अर्थ का निश्चायक भी नहीं होता वह प्रमाण नहीं हो सकता,यथा अन्य पुरुष का ज्ञान एवं संशयादि ज्ञान । अन्य पुरुष का ज्ञान अपने लिए अनिश्चायक (अनुपयोगी) है तथा संशयादि ज्ञान पर का अनिश्चायक होने से अप्रमाण है। वस्तुतः स्व एवं अर्थ की अव्यवसायकता को छोड़कर पुरुषान्तर एवं संशयादि के ज्ञान के अप्रामाण्य में कोई कारण नहीं है। प्रमाण,संशयादि का व्यवच्छेद करके निश्चय अर्थ के स्वरूप का अवधारण करता है । प्रमाण का यह स्वरूप प्रमाण' शब्द की निरुक्ति से भी ज्ञात होता है । जैसा कि प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र में प्रतिपादित किया है 'प्रकर्षेण संशयादिव्यक्च्छेदलक्षणेन मीयते परिच्छिद्यते येनाऽर्थ: तत् प्रमाणम्'३२२२ अर्थात् 'प्रकर्ष रूप से संशयादि का व्यवच्छेद करके जिसके द्वारा अर्थ (पदार्थ) जाना जाता है वह प्रमाण है।' प्रमाण का यह लक्षण निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में संभव नहीं है अतः उसमें प्रमाण शब्द की प्रवृत्ति नहीं की जा सकती है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष व्यवहार के लिए अनुपयोगी होने से भी प्रमाण नहीं है । जो व्यवहार के लिए अनुपयोगी होता है वह प्रमाण नहीं होता ,जैसे कि चलते हुए व्यक्ति के लिए तिनकों के स्पर्श होने का ज्ञान । बौद्धों के द्वारा ऐसा ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण परिकल्पित किया गया है। बौद्धों ने 'प्रामाण्यं व्यवहारेण२२२ के अनुसार व्यवहार के आधार पर प्रमाणता स्वीकार की है, किन्तु निर्विकल्पक ज्ञान तो प्रवृत्ति आदि व्यवहार का प्रसाधक नहीं है,क्योंकि वह स्व एवं अर्थ का निश्चायक नहीं है। अनध्यवसायी (अनिश्चायक) होने से निर्विकल्पक कहीं भी प्रवृत्ति आदि नहीं ३२१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख ३२२. हेमचन्द्र कृत प्रमाणमीमांसा पृ०२ पर भी यह वाक्य है। ३२३. प्रमाणवार्तिक, १.७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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