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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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बौद्धों का यह मन्तव्य है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष विशद होता है तथा कल्पनात्मक ज्ञान अस्पष्ट होता है ,किन्तु प्रभाचन्द्र विकल्पात्मक ज्ञान को निश्चयात्मक मानते हैं अस्पष्टात्मक नहीं । इसलिए अस्पष्ट आकार के अर्थ में भी वे कल्पना शब्द के प्रयोग का प्रतीकार करते हैं । विद्यानन्द ने अस्पष्ट प्रतीति के अर्थ में कल्पना शब्द का प्रयोग स्वीकार कर बौद्धों की भाँति जैन प्रत्यक्ष में भी वैसी कल्पनापोढता प्रतिपादित की है।३१७
बौद्ध दार्शनिक विकल्प को अर्थसन्निधि से निरपेक्ष मानते हैं ।३१८ उनका कथन है कि विकल्प या कल्पना अर्थ से उत्पन्न नहीं होती ,क्योंकि उसके लिए अर्थ की सन्निधि अपेक्षित नहीं है । प्रथाचन्द्र के अनुसार जैन दर्शन में अभीष्ट सविकल्पक प्रत्यक्ष अर्थसन्निधि से निरपेक्ष नहीं होता है । पुरोवर्ती अर्थ के होने पर ही प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति देखी जाती है। प्रभाचन्द्र यहां पर इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का अवलम्बन लेकर ही अर्थसन्निधि की बात कह रहे हैं, अन्यथा अतीन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा दूरस्थ, भूत एवं भावी अर्थों का ही ज्ञान जैन दर्शन में संभव माना गया है। इन्द्रियप्रत्यक्ष अवश्य पुरोवर्ती अर्थ का ही ज्ञान कराता है जो निश्चयात्मक होने से प्रभाचन्द्र की दृष्टि में विकल्पात्मक है । इसलिए प्रभाचन्द्र मानते हैं कि अर्थ की सन्निधि में उत्पन्न विकल्पात्मक प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता।३१९
इन्द्रियों से अनुत्पन्न ज्ञान यदि कल्पना है तो यह मन्तव्य भी उचित नहीं है,क्योंकि विकल्पात्मक प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य होता है । विकल्पात्मक ज्ञान का इन्द्रिय के साथ अन्वय व्यतिरेक का सम्बन्ध है। निर्विकल्पक ज्ञान की प्रतीति इन्द्रिय से उत्पन्न होती हुई नहीं देखी जाती है। निर्विकल्पक ज्ञान द्वारा अर्थ का साक्षात्कार भी नहीं होता है,वह तो वन्ध्या पुत्र के समान स्वरूपतः अप्रसिद्ध है। इसलिए सविकल्पक प्रत्यक्ष में अनक्षप्रभवता का दोष नहीं दिया जा सकता।३२०
प्रभाचन्द्र ने यहां पर भी इन्द्रिय से उत्पन्न पुरोवर्ती अर्थ के प्रत्यक्ष को ही आधार बना कर अनक्षप्रभवता रूप कल्पना का खण्डन किया है ।
प्रभाचन्द्र ने धर्मान्तर के आरोप को भी कल्पना का लक्षण नहीं माना है । यदि कल्पनात्मक ज्ञान में निर्विकल्पक के धर्मान्तर का आरोप होता है तो वह धर्म कौनसा है ? यदि विशदता रूप धर्मान्तर का आरोप होता है तो विशदता का आरोप सविकल्पक ज्ञान में होना उसी प्रकार असत् है जिस प्रकार वन्ध्या-पुत्र के सम्बन्धी का होना । निर्विकल्पक ज्ञान में वैशद्यधर्म अप्रसिद्ध है । वैशद्य की प्रतीति तो सविकल्पक ज्ञान में ही होती है, इसलिए धर्मान्तर के आरोप को कल्पना मानकर भी विकल्पात्मक ३१७. द्रष्टव्य, विद्यानन्दकृत बौद्ध प्रत्यक्ष खण्डन, यही अध्याय, पृ. २४९ ३१८. धर्मोत्तरने अर्थसन्निधि की निरपेक्षता को विकल्पका कारण कहा है, यथा-कुतः पुनरेतद् विकल्पोऽर्थान्नोत्पद्यते इति,
अर्थसन्निधिनिरपेक्षत्वात्।-न्यायबिन्दुटीका, १.५ पृ०४६ ३१९. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख ३२०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख
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