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________________ १८० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा होने से इनमें तादात्म्य नहीं हो सकता। जिन दोनों में विरुद्ध धर्म पाए जाते हैं उनमें तादात्म्य नहीं होता,जैसे जल और अग्नि में । इसी प्रकार चेतन एवं अचेतन रूप विरुद्ध धर्म होने के कारण शब्द एवं ज्ञान (प्रतिभास) में तादात्म्य नहीं पाया जाता । इसलिए ज्ञान में शब्द की स्वभाव -शून्यता होने के कारण उसमें अविकल्पकता सिद्ध ही है ।उसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है । शब्द का हेतु होने से भी अर्थ का प्रतिभास शब्दयुक्त नहीं होता है। यदि शब्द से प्रतिभास उत्पन्न होता है इसलिए प्रतिभास कल्पनात्मक होता है ऐसा मानें तब तो श्रोत्र से होने वाला शब्दज्ञान बौद्धमत में अविकल्पक नहीं रह सकेगा। क्योंकि वह अभिलाप से उत्पन्न होता है । यदि प्रतिभास शब्द को उत्पन्न करता है इसलिए वह अभिलापवान् होता है तो प्रकृति -प्रत्ययादि का प्रत्यक्ष भी सविकल्पक हो जायेगा। प्रतिभास को शब्द से जन्य एवं जनक दोनों मानने पर भी दोनों प्रकार के दोष आते हैं तथा एक में दोनों के होने का विरोध भी आता है। इसलिए अभिलापवती प्रतीति या शब्दयुक्त प्रतिभास को कल्पना मानना उचित नहीं है।३१४ प्रभाचन्द्र यहां यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि जैन मतानुसार अर्थ का जो प्रत्यक्ष होता है वह शब्दयुक्त या अभिलाप युक्त नहीं होता । अर्थ का प्रतिभास शब्द रहित ही होता है। शब्द अचेतन एवं प्रतिभास चेतन होता है , अतः इनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता। बौद्ध भी प्रत्यक्ष को अभिलाप रहित मानते हैं , किन्तु उन्होंने संभवतः मीमांसा दर्शन एवं वैयाकरणों के शब्दाद्वैत का खण्डन करने के लिए प्रत्यक्ष को अभिलाप या शब्द रहित निरूपित किया है । इस दृष्टि से जैन एवं बौद्ध मन्तव्य में कोई मतभेद नहीं है। प्रभाचन्द्र ने प्रतिभास के अस्पष्ट आकार को भी 'कल्पना' मानने का प्रतिषेध किया है।३१५ प्रभाचन्द्र कहते हैं कि अस्पष्ट आकार की सिद्धि विकल्पात्मक अनुमान से होती है, यथा - “जो सविकल्पक ज्ञान होता है वह अस्पष्ट होता है,यथा अनुमान । विवादास्पद ज्ञान भी अस्पष्ट है ,क्योंकि वह विकल्पात्मक है । इस प्रकार विकल्प से अस्पष्टता की सिद्धि होने के कारण तथा अस्पष्टता से विकल्पोत्पत्ति मानने के कारण अन्योन्याश्रय दोष आता है । वस्तुतः निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञानों से स्पष्टता एवं अस्पष्टता का कोई सम्बन्ध नहीं है। स्पष्टता एवं अस्पष्टता का सम्बन्ध तो उसकी इन्द्रियादि सामग्री विशेष से होता है । वस्तु का स्वरूप भी अस्पष्टता में हेतु नहीं होता है । यदि परोक्ष आकार का जहां उल्लेख होता है वहां अस्पष्टता होती है,तो यह मन्तव्य भी उपयुक्त नहीं है,क्योंकि विकल्प ज्ञान सर्वत्र परोक्ष अर्थ में ही प्रवृत्त नहीं होता है, अपितु वर्तमान पुरोवर्ती अर्थ में भी विकल्पात्मक प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति देखी जाती है।३१६ ३१४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख ३१५. धर्मकीर्ति एवं धर्मोत्तर अस्फुट प्रतिभास में कल्पना मानते हैं, यथा - (१) न विकल्पानुबद्धस्यास्ति स्फुटार्थावभासिता ।-प्रमाणवार्तिक, २.२८३ (२) अस्फुटाभत्वादेव च सविकल्पकम्।- न्यायबिन्दुटीका,१.११ पृ०६७ ३१६. द्रष्टव्य परिशिष्ट-ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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