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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
'अभ्यासदशा में विकल्पनिरपेक्ष दर्शन (प्रत्यक्ष) ही प्रमाण होता है' यह बौद्ध मंतव्य भी उचित नहीं है,क्योंकि इसमें दर्शन को प्रमाण किस विषय में कहा गया है ? भावी प्राप्य रूपादि में यदि दर्शन को प्रमाण कहा गया है तो प्राप्य को विषय नहीं करने के कारण उसमें प्रामाण्य मानना उचित नहीं है।अन्यथा नीलज्ञान पीतज्ञान के विषय में प्रमाण होने लगेगा,और प्रत्यक्ष की वर्तमानावभासिता भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। ___ यदि वर्तमान को विषय करने वाला दर्शन भी भावी प्राप्य में प्रवृत्त कराने के कारण प्रमाण है तो यह भी समुचित नहीं है ,क्योंकि जो अभी प्राप्य विषय नहीं बना है उसमें प्रवृत्त कराना संभव नहीं है अन्यथा मीमांसक-मत में सामान्य मात्र को विषय करने वाला शब्द ज्ञान भी विशेष में प्रवृत्ति कराने लगेगा। उसका खण्डन करना युक्त नहीं हो सकेगा।
यदि प्राप्य विषय में भी निर्विकल्पक ज्ञान किसी निमित्त से प्रवर्तक होता है तो प्रत्यक्षपृष्ठभावी व सामान्यमात्राध्यवसायी विकल्प को प्राप्य विशेष में प्रवर्तक मानना उचित नहीं है । जबकि बौद्धों ने दृश्य एवं विकल्प्य अर्थों के एकत्व ज्ञान को प्रवृत्ति में निमित्त कहा है। इससे सिद्ध होता है कि निर्विकल्पक ज्ञान प्राप्य अर्थ में प्रमाण नहीं है। यदि दृश्य एवं प्राप्य अर्थ में एकत्व के कारण वह प्रमाण होता है तो यह कैसे कहा गया है ? यदि व्यवहारी पुरुषों को उसमें संवाद ज्ञान होता है इसलिए वह प्रमाण है ३०९,तो दृश्य एवं प्राप्य का एकत्व किसका विषय होता है ? निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का विषय तो हो नहीं सकता ,क्योंकि यदि वह सामान्य को विषय करेगा तो सविकल्पक हो जायेगा और यदि विकल्प उसको विषय करता है तो अभ्यासदशा में विकल्प को बौद्ध मत में स्वीकार नहीं किया गया है इसलिए अभ्यासदशा में भी विकल्प निरपेक्ष दर्शन को प्रमाण नहीं कहा जा सकता।३१०
सारांश यह है कि अभयदेवसूरि ने बौद्ध प्रत्यक्ष का व्याकरण एवं न्याय दर्शन के साथ आलोडन करने के अनन्तर उसके विविध पक्षों में अनेक दोषों की उद्भावना की है । बौद्ध प्रत्यक्ष की आलोचना में अभयदेवसूरि ने निर्विकल्पक एवं सविकल्प ज्ञान के एकत्व अध्यवसाय को अनुपपन्न सिद्ध किया है, तथा निर्विकल्प ज्ञान की विशदता का भी खण्डन किया है । अभयदेवसूरी विद्यानन्द की भांति प्रत्यक्ष ज्ञान में शब्दयोजना को आवश्यक नहीं मानते हैं । अकलङ्क के समान अभयदेवसरि ने प्रत्यक्ष को निश्चयात्मक अर्थ में सविकल्पक सिद्ध किया है तथा बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक अवस्था को अनुपपत्र बताया है। अभयदेव का मन्तव्य है कि समस्त कल्पनाओं के संहार की अवस्था में भी अभिलापसंसर्गयोग्य अर्थ का ही ग्रहण होता है ,अतः प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्पक नहीं हो सकता । अर्थसामर्थ्य से उत्पन्न प्रत्यक्ष के वैशद्य का भी अभयदेव ने निराकरण किया है । अभयदेव का कथन है कि योगिप्रत्यक्ष अर्थ सामर्थ्य से उत्पन्न नहीं होता है,तथापि विशद होता है । अभयदेव सांश वस्तु ३०९. तुलनीय-प्रमाणमविसंवादिज्ञानम् ; अर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम् ।- प्रमाणवार्तिक, १.३ ३१० द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख
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