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प्रत्यक्ष-प्रमाण
द्वित्व ज्ञान में विसंवाद होने से जिस प्रकार वह ज्ञान भ्रान्त है उसी प्रकार चन्द्रमा में संवाद होने से वह अभ्रान्त भी है । प्रमाण एवं अप्रमाण व्यवस्था व्यवहार के अनुरोध से होती है जैसा कि आपने (बौद्धों ने) कहा भी है 'प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्तनम् । ३०५
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एक ज्ञान में भ्रान्त एवं अभ्रान्त दोनों रूपों का होना अयुक्त नहीं है, क्योंकि व्यवहारी पुरुष इस प्रकार के ज्ञान का आश्रय लेता है, अन्यथा चन्द्रदर्शन में 'चन्द्ररूप में प्रमाणता तथा क्षणिकता में अप्रमाणता' ये दोनों रूप घटित नहीं होंगे। क्षणिकता में चन्द्रदर्शन का प्रामाण्य मानने के लिए प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति नहीं होगी। चन्द्रज्ञान में भी अप्रमाणता मानने पर तो कहीं भी कोई भी ज्ञान प्रमाण नहीं रहेगा, फलतः समस्त प्रमाण-व्यवहार का लोप हो जायेगा । ३०६
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जिन बौद्धों ने दृश्य एवं प्राप्यक्षण के एकत्व में अविसंवाद मानकर प्रत्यक्ष प्रमाण स्वीकार किया है तथा उन दोनों (दृश्य एवं प्राप्य) के पृथक्-पृथक् रूप से अनुभव होने पर भी उनमें पृथक्तया प्रमाण स्वीकार नहीं किया है वे चन्द्रदर्शन में चन्द्रप्राप्ति का अध्यवसाय करके चन्द्रमात्र में प्रमाण क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ? द्वित्व ज्ञान के कारण चन्द्रदर्शन मात्र को अप्रमाण क्यों मान लेते हैं ? विवेक के अनध्यवसायी पुरुष को चन्द्रदर्शन का अनुभव नहीं होने पर भी यदि एकत्व का निश्चय होने से उसे प्रमाण मानते हैं तो बौद्धों द्वारा प्रयुक्त यह अनुमान प्रमाण बाधित होता है कि “जो वस्तु जिस प्रकार की प्रकाशित होती है वह उसी प्रकार से व्यवहार के योग्य सत् होती है । जिस प्रकार नील को नीलरूप में प्रकाशित करने वाला ज्ञान नील रूप से व्यवहार योग्य होता है उसी प्रकार समस्त पदार्थ (भाव) क्षणिक रूप में अवभासित होते हैं, इसलिए क्षणिक हैं।” क्योंकि इस अनुमान वाक्य में हेतु असिद्ध है । ३०७
अभयदेवसूरि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का भिन्न प्रकार से निरसन करते हुए कहते हैं कि अविकल्पक दर्शन को प्रमाण मानना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि सुषुप्त अवस्था में भी अविकल्पक दर्शन पाया जाता है । यतः चेतना का सद्भाव सुषुप्तावस्था में भी रहता है अन्यथा जागृत अवस्था के ज्ञान का कोई उपादान नहीं रहेगा या अचेतन को ही उसका उपादान मानना होगा। इसलिए अविकल्पक दर्शन को प्रमाण मानने पर सुषुप्तावस्था के दर्शन को भी प्रमाण स्वीकार करने का प्रसंग आता है। यदि उस निर्विकल्पक दर्शन द्वारा विकल्प को उत्पन्न नहीं किया जाता है, इसलिए वह अप्रमाण है, तो ऐसा मन्तव्य भी उचित नहीं है, क्योंकि सुषुप्तावस्था में भी विकल्प का तादात्म्य रहता है । यदि विकल्प सुषुप्तावस्था में न हो तो बाह्यार्थ में भी वह व्यवस्थापक नहीं हो सकता है। इसलिए बाह्यार्थ में व्यवस्थापक होने से सविकल्पज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिए । ३०८
३०५. प्रमाणवार्तिक, १.७ ३०६. द्रष्टव्य, परिशिष्ट ख ३०७. द्रष्टव्य, परिशिष्ट ख ३०८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट ख
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