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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
यदि अभ्यास आदि की सहायता से दर्शन विकल्प को उत्पन्न करता है तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि कभी अभ्यास आदि की सहायता से दर्शन विकल्प को उत्पन्न करता हुआ नहीं देखा गया, अतः अविकल्प में विकल्प जनकता को कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? यदि सच्चेतन आदि विकल्प को अविकल्पक ज्ञान उत्पन्न करता हुआ देखा गया है, इसलिए अविकल्प को सविकल्पक का जनक माना गया है तो फिर क्रमभावी हेतु एवं फल के रूप में अविकल्प एवं सविकल्प दो ज्ञानों का अनुभव होना चाहिए, जो नहीं होता है । केवल एक सावयव स्वभाव वाले, सामान्य विशेषात्मक वस्तु के ग्राहक ज्ञान का ही निश्चय होता है, अतः यही विकल्पज्ञान उत्पन्न होता है।
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अविकल्प ज्ञान को अभ्यासादि की सहायता से विकल्प को उत्पन्न करने वाला सिद्ध करने के लिए जो प्रघट्टक के अस्मरण का दृष्टान्त दिया गया है वह भी अयुक्त है, क्योंकि वर्ण आदि एवं उनके ज्ञानों का प्रति व्यक्ति भेद होता है। उनके दृढ संस्कार ही निश्चयात्मक होते हैं तथा उनका ज्ञान ही स्मृति जनक होता है, अतः प्रतिनियत विषय की स्मृति संभव होने से सकल प्रघट्टक के अस्मरण का दोष नहीं आता है । अनिश्चयात्मक ज्ञान तो क्षणिकत्व आदि की भांति कहीं भी विकल्प का कारण नहीं होता है।
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अभयदेवसूरि ने बौद्ध पक्ष को रखते हुए धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक के दो श्लोकों को प्रस्तुत किया है । तदनुसार प्रत्यक्ष द्वारा एक अर्थ का समस्त स्वभाव जान लिया जाता है तो फिर उसका कौनसा भाग अदृष्ट रह जाता है जिसके लिए प्रमाणान्तर (अनुमान) का परीक्षण किया जाता है ? धर्मकीर्ति के मत में रूपसाधर्म्य से दृष्ट अर्थ के ज्ञान में भ्रान्ति हो सकती है यथा शुक्ति में रजताकार की भ्रान्ति । उसके निराकरण के लिए अनुमान प्रमाण माना गया है। प्रस्तुत प्रसंग में अभयदेव इसका तात्पर्य कहते हैं कि जो जिससे अभिन्न है वह उसके अनुभव किये जाने पर अनुभव होता है, जिस प्रकार उस वस्तु का ही स्वरूप। सच्चेतन आदि चित्त से स्वर्गप्रापणसामर्थ्य अभिन्न है । उसका उससे भेदसम्बन्ध असिद्ध है ।
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अभयदेव - स्वर्गप्रापण - सामर्थ्य सच्चेतनादि चित्त से अभिन्न नहीं है, क्योंकि सच्चेतनादि का अनुभव होने पर स्वर्गप्रापण - सामर्थ्य का अनुभव नहीं होता है, यथा चन्द्रमा का प्रत्यक्ष होने पर भी तिमिर रोगी को उसके एकत्व का प्रत्यक्ष नहीं होता है। चन्द्रमा का ग्रहण होने के साथ उसके एकत्व in भी अनुभव हो जाता है, यदि ऐसा कहें तो फिर प्रत्यक्ष में भ्रान्ति का अभाव मानना होगा। यदि कोई प्रत्यक्ष भ्रान्त नहीं होता है तो फिर 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् ' में अभ्रान्त पद का ग्रहण करना अनर्थक सिद्ध होता है ।
वस्तुतः एकत्व के ज्ञान के बिना भी चन्द्रमा का प्रतिभास होता देखा गया है । यदि दो चन्द्रमाओं के दिखाई देने पर चन्द्रज्ञान मरीचिका जल की भांति भ्रान्त है तो यह मानना उचित नहीं है, क्योंकि
३०३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
३०४. तुलनीय, प्रमाणवार्तिक ३.४३-४४
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