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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १७५ स्मरण के बिना शब्दयोजना असंभव है और पूर्वकाल में अर्थदर्शन के साथ शब्द की सन्निधि के बिना शब्द स्मरण असंभव है । अर्थ का दर्शन निश्चय को उत्पन्न किये बिना युक्त नहीं है और निश्चय शब्दयोजना के बिना स्वीकार नहीं किया जाता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष कहीं भी अर्थप्रदर्शक नहीं हो पाता,अतः उसका प्रामाण्य नहीं माना जा सकता। इसलिए शब्दयोजना के बिना भी अर्थ का निर्णायक ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। अविकल्प या अनिर्णयात्मक प्रत्यक्ष से लिङ्ग का भी निर्णय नहीं हो सकता। लिङ्ग का निर्णय करने के लिए अनुमान भी सक्षम नहीं है,क्योंकि उसके लिंग का निर्णय करने के लिए अन्य अनुमान की कल्पना करनी होगी । फलतः अनवस्था दोष के कारण अनुमान ही प्रवृत्त नहीं हो सकेगा और समस्त प्रमाण आदि के व्यवहार का लोप हो जायेगा।२०१ बौद्ध - निरंश वस्तु के सामर्थ्य से उत्पन्न होने के कारण, इन्द्रिय के प्रथम सन्निपात से उत्पन्न निर्विकल्पक ज्ञान निरंश वस्तु का प्रहण करता है। अभयदेवसूरि- यह कथन भी असंगत है,क्योंकि निरंश वस्तु का ही अभाव है अतः उसके सामर्थ्य से उत्पन्न होने का जो हेतु दिया गया है वह असिद्ध है । जो निरंशवस्तु से उत्पन्न हो,वह निरंश वस्तु का ग्राही हो यह आवश्यक नहीं है ,क्योंकि निरंश रूप-स्वलक्षण से उत्पन्न उत्तर रूप-स्वलक्षण, पूर्वक्षण का माही नहीं होता है। ___अभयदेवसूरि ने सांश या सावयववस्तु का प्रत्यक्ष होने के कारण प्रत्यक्ष को सविकल्पक स्वीकार किया है । उन्होंने बौद्ध मान्यता का खण्डन करते हुए प्रतिपादित किया है कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तथाभूत निरंश वस्तु से उत्पन्न नहीं होता है अतः उसे संवेदनग्राही एवं निर्विकल्पक नहीं कहा जा सकता।३०२ बौद्ध - अनुभव (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष) मात्र से विकल्प की उत्पत्ति नहीं होती है । अन्यथा निर्णयात्मकप्रत्यक्षवादी को भी विस्तृत प्रघट्टक आदि में वर्ण,पद,वाक्य आदि सबका निर्णयात्मक प्रत्यक्ष रूप से अनुभव होने लगेगा तथा स्मरण रूप विकल्प का उदय ही नहीं हो सकेगा। उसकी आवश्यकता ही नहीं रहेगी। ___ यदि निर्णयात्मक प्रत्यक्ष में दर्शन,पाटव,अभ्यास,प्रकरण आदि की अपेक्षा होती है तो वह तो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी समानरूपेण लागू होती है। अभयदेवसूरि- बौद्धों का यह कथन असत् है ,क्योंकि दर्शन (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष)में सच्चेतन आदि को ग्रहण करने की योग्यता रूप जो पाटव है तथा उनको ग्रहण न करने की योग्यता रूप जो अपाटव है वह दर्शन एवं दृश्य के सावयव होने पर ही युक्तिमत् ठहरता है और सावयव होने पर उसकी सविकल्पकता सिद्ध होती है। ३०१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट -ख ३०२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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