SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा जा रहा है। बौद्ध - निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञान में मन की युगपद् वृत्ति होने अथवा शीघ्रवृत्ति कारण मूढ पुरुष निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञान में एकत्व का अध्यवसाय करता है,८७ जिससे वह निर्विकल्पक प्रत्यक्षगत विशदता को स्व एवं अर्थ के अध्यवसायी सांश विकल्पज्ञान पर आरोपित कर देता है जिससे उसे विकल्पज्ञान विशद प्रतीत होता है। अभयदेवसूरि- स्व एवं अर्थ का अध्यवसायी एक ही विशदज्ञान अनुभव में आता है । अननुभूयमान निर्विकल्पक ज्ञान की परिकल्पना करने पर तो बुद्धि से भिन्न चैतन्य (पुरुष) की परिकल्पना करने वाले सांख्यमत के अनिषेध का प्रसंग आता है । अभयदेवसूरि बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि सविकल्प एवं निर्विकल्पक ज्ञान में एकत्व का अध्यवसाय कौन करता है ? निर्विकल्पक ज्ञान तो विकल्प के साथ एकता का अध्यवसाय नहीं कर सकता ,क्योंकि वह बौद्धमत में अध्यवसाय से विकल माना गया है । यदि वह अध्यवसाय करने लगे तो उसे प्रान्त मानने का प्रसंग आता है । विकल्प भी निर्विकल्पक के साथ एकता का अध्यवसाय नहीं कर सकता ,क्योंकि सविकल्प ज्ञान का निर्विकल्पक ज्ञान विषय नहीं बनता है । यदि बने तो सविकल्पक ज्ञान स्वलक्षण को भी विषय करने लगेगा। अविषयीकृत ज्ञान का अन्य ज्ञान पर अध्यारोप नहीं होता है,यथा जब तक रजत का ज्ञान नहीं हुआ है तब तक उसका सीप पर यह रजत है' इस प्रकार अध्यारोप नहीं किया जा सकता। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी अपने को निर्विकल्पक रूप में नहीं जानता है,क्योंकि वह अर्थ को विषय नहीं करता तथा वह 'यह है' इस रूप में असिद्ध है। मरीचिका का जल के रूप में अध्यवसाय होने पर भी वह उस रूप अर्थक्रिया में उपयोगी सिद्ध नहीं होता । इसी प्रकार अनुभव (निर्विकल्प ज्ञान) भी विकल्प रूप में अध्यवसित होकर उस प्रकार की अर्थक्रिया करने में सिद्ध नहीं होता । बौद्ध मत में विकल्प भी सिद्ध नहीं है ,क्योंकि उसका विषय अवस्तु स्वीकार किया गया है। यदि विकल्प उसको विकल्परूपमे अध्यवसित करता है तो विकल्पका विषय परमार्थ मानना पड़ेगा तथा विकल्प का अवस्तु को विषय करने के कारण एवं विसंवादयुक्त होने के कारण उच्छेद समझना चाहिए"२८८ कथन से संगति नहीं बैठेगी। अतः विकल्पान्तर भी विकल्प का अध्यवसाय नहीं कर सकता,क्योंकि उसमें भी वही अवस्तु को विषय करने का दोष है। यदि निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञान की एकता का अध्यवसाय करते समय विकल्प ज्ञान को व्यवहारकर्ता पुरुष निर्विकल्पक रूप में मानता है तो समस्त ज्ञान तब निर्विकल्पक हो जायेगा एवं विकल्पज्ञान का व्यवहार समाप्त होने से अनुमान-प्रमाण का अभाव हो जायेगा। यदि निर्विकल्पक २८७. तुलनीय - मनसोयुगपद्वृत्ते : सविकल्पाविकल्पयोः । विमूढो लघुवृत्तेर्वा तयोरेक्यं व्यवस्यति ॥-प्रमाणवार्तिक, २.१३३ २८८.विकल्पाऽवस्तुनिर्भासाद् विसंवादादुपप्लव: ।- तत्त्वबोधविधायिनी, पृ० ५००.१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy