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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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किया जाता?
यदि अनुमान से अनभ्यास दशा में प्रवृत्ति उपलब्ध होती है,उसके बिना नहीं होती तो यह भी मान्यता उपयुक्त नहीं है,क्योंकि अनभ्यास दशा में अनुमान से प्रवृत्ति दिखाई देने से सर्वदा अनुमान से ही व्यवहार उत्पन्न होगा और प्रत्यक्ष से लिङ्ग का ग्रहण नहीं मानने के कारण लिङ्ग के निश्चय के लिए अन्य अनुमान मानना पड़ेगा तथा उस अनुमान के लिङ्ग निश्चय के लिए भी अन्य अनुमान मानना होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष उपस्थित होगा एवं कभी व्यवहार नहीं हो सकेगा, अतः निर्विकल्पक दर्शन (प्रत्यक्ष) को अभ्यासदशा में व्यवहार करने वाला स्वीकार करना चाहिए।२८४
इस प्रकार अभयदेवसूरि ने वैयाकरण एवं नैयायिकों के सविकल्पवाद का बौद्धों द्वारा खण्डन प्रस्तुत कर बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को मजबूती के साथ पूर्वपक्ष में रखा है। अभयदेवसूरि द्वारा बौद्ध प्रत्यक्ष का निरसन
तर्कपंचानन अभयदेवसरि के मत में अन्य जैन दार्शनिकों की तरह वही ज्ञान प्रमाण होता है जो स्व एवं अर्थ का निर्णायक हो।२८५ बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक ज्ञान स्व एवं अर्थ का निर्णायक नहीं है, इसलिए अभयदेवसूरि ने बौद्ध दार्शनिकों से सीधा प्रश्न किया है कि आप लोग (बौद्ध) स्व एवं अर्थ के निर्णायक स्वभाव वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष क्यों नहीं मानते हैं ? उसके ग्राहक प्रमाण का अभाव है इसलिए या उसके बाधक प्रमाण का सद्भाव है इसलिए ? स्वार्थनिर्णयस्वभाव वाले ज्ञान के ग्राहक प्रमाण का अभाव स्वीकार नहीं किया जा सकता,क्योंकि स्थिर,स्थूल एवं साधारण स्तम्भादि बाह्य अर्थ का तथा सद् द्रव्य चेतनत्व आदि आन्तरिक ज्ञान का निर्णय होता देखा गया है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में स्व एवं अर्थ का निर्णायक प्रत्यक्ष सिद्ध है इसलिए स्व एवं अर्थ के निर्णायक ज्ञान के ग्राहक प्रमाण का अभाव सिद्ध नहीं है।
स्व एवं अर्थ के निर्णयस्वभाव वाले ज्ञान का बाधक प्रमाण भी नहीं है। उसका बाधक न प्रत्यक्षप्रमाण है और न अनुमानप्रमाण । प्रत्यक्ष-प्रमाण उसका बाधक नहीं हो सकता,क्योंकि वह अविकल्पज्ञान का प्रसाधक नहीं है। निरंश क्षणिक एवं एक परमाणु का ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है । अतः प्रत्यक्ष को स्व एवं अर्थ के निर्णायक ज्ञान का बाधक नहीं कहा जा सकता। अनुमानप्रमाण भी उसका बाधक नहीं हो सकता,क्योंकि अनुमान तो प्रत्यक्षपूर्वक प्रवृत्त होता है। जिस विषय में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती,उसमें अनुमान प्रवृत्त नहीं होता । प्रत्यक्ष एवं अनुमान के अतिरिक्त प्रमाण बौद्धों को अभीष्ट नहीं है।२८६
अभयदेवसूरि ने निर्विकल्पक एवं सविकल्पक के एकत्व अध्यवसाय,निर्विकल्पक के वैशद्य तथा निर्विकल्पक अवस्था आदि का जो खण्डन किया है उसे उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में प्रस्तुत किया २८४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २८५. प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानम् ।-तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. ५१८.२४ २८६. द्रष्टव्य, परिशिष्ट -ख
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