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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा नैयायिक - यदि इस प्रकार निश्चय होने पर ही प्रवृत्ति होती है, निश्चय के अभाव में नहीं, , तो प्रवृत्तिविधायक होने से निश्चय ही प्रमाण है। दर्शन (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष) से गृहीत नील का निश्चय करने वाला विकल्प गृहीतग्राही होने से अप्रमाण नहीं होता है। विकल्प प्रमाण है, क्योंकि वह दर्शन गृह अर्थ के अर्थक्रिया सम्बन्ध का उल्लेख करते हुए प्रवृत्ति कराता है । सर्वत्र कल्पना (विकल्प) ही प्रवृत्ति कराती है। अनुमान में भी उससे ही प्रवृत्ति देखी जाती है। दर्शन (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष) क्षणिक का ग्रहण करने पर व्यवसायात्मक नहीं होता, क्योंकि वह तदनुरूप प्रवृत्ति नहीं कराता, अतः व्यवहार विधायक ज्ञान को ही प्रमाण कहा जा सकता है और वह ज्ञान निर्विकल्पक नहीं, सविकल्पक है । २८३ १६८ बौद्ध - हम विकल्पात्मक ज्ञान को अप्रमाण नहीं मानते हैं, क्योंकि अनुमान को हमने विकल्प रूप में ही प्रमाण स्वीकार किया है, किन्तु विकल्पात्मक ज्ञान को प्रत्यक्षप्रमाण नहीं कहा जा सकता । नैयायिक – लिङ्ग के अभाव में प्रत्यक्ष अर्थ का निश्चय करने वाला विकल्प अनुमान कैसे है ? बौद्ध - यह केवल अपरोक्ष (पुरोवर्ती) अर्थ का ही निश्चय नहीं करता, अपितु अर्थक्रिया से सम्बद्ध परोक्ष अर्थ का भी निश्चय करता है। उसके अभाव में प्रवृत्ति नहीं होती । सुगन्ध आदि का निर्विकल्पक रूपेण ज्ञान करने वाला अभ्यस्त पुरुष अन्यत्रगतचित्त होकर भी प्रवृत्त होता दिखाई देता है । अतः निर्विकल्पक को प्रवर्तक कैसे नहीं कहा जा सकता ? यदि अनुमान से ही बाह्यार्थ में सर्वदा प्रवृत्ति होती है तो प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध नहीं हो सकेगा तथा उसे मात्र स्वसंवेदन (प्रत्यक्ष ) मानना पड़ेगा और तब रूपादि स्वलक्षणग्राही इन्द्रियज्ञान एवं आर्यचतुष्टय गोचर योगविज्ञान आदि चतुर्विध प्रत्यक्ष का वर्णन असंगत हो जायेगा । यदि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अर्थ की अर्थक्रिया योग्यता को प्राप्त नहीं करता है और उसके अभाव में प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अतः प्रवर्तक नहीं होने के कारण बाह्य व्यवहार में निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है, तो अनुमान भी अर्थक्रिया की संगति को प्रकाशित नहीं करता है, क्योंकि अनुमान का विषय अवस्तु है अतः वह भी प्रवर्तक सिद्ध नहीं होता। यदि वह अध्यवसायक के रूप में उत्पन्न होता है, इसलिए अर्थग्राहिता के अभाव में भी प्रवर्तक होता है तो यह कथन असत् है, क्योंकि उसका अध्यवसायित्व ही अनुपपन्न है । ग्रायाकार एवं ग्राहकाकार दोनों रूपों मे उसका अध्यवसायित्व सिद्ध नहीं होता । अनुमान होने पर प्रवृत्ति देखी गयी है। अनुमान के अभाव में प्रवृत्ति नहीं देखी गयीं, अतः अनुमान से प्रवृत्ति होती है ऐसा यदि निश्चय किया जाता है तो विकल्परहित प्रत्यक्ष में भी अभ्यासदशा में प्रवृत्ति देखी गयी है । यह बात बार- बार कही गयी है कि कल्पना का संवेदन न होने पर भी पुरः स्थित अर्थ के स्पष्ट प्रतिभास मात्र से ही प्रवृत्ति होती है, अतः उससे क्यों नहीं प्रवृत्ति का व्यवस्थापन २८३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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