SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा में अनुमान-प्रमाण की प्रवृत्ति क्यों नहीं मानी जाती ? यदि नीलादि का निश्चय प्रत्यक्षप्रमाण से ही हो जाता है तो यह कैसे संभव है,प्रत्यक्ष तो अनिश्चयात्मक है। यदि वह प्रत्यक्ष का हेतु है तो यह भी संभव नहीं,क्योंकि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है और निर्विकल्पक ज्ञान निश्चय नहीं करा सकता । जिस प्रकार अर्थ निश्चयात्मक ज्ञान कराने में हेतु नहीं होता, उसी प्रकार निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी निश्चयात्मक ज्ञान नहीं करा सकता। यदि निश्चय के संस्कार को जागृत करने के कारण प्रत्यक्ष को निश्चय का हेतु कहा जाता है तो यह भी उचित नहीं है,क्योंकि संस्कार की जागृति तो अर्थ से ही होती है। अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से निश्चय नहीं होता। यदि नीलादि में होता भी है तो क्षणक्षयादि में क्यों नहीं होता ? दर्शन,पाटव आदि तो दोनों में समान हैं । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में निश्चय की अपेक्षा रहती है ,अतः निश्चय ही मुख्यतः प्रमाण है। स्व एवं अर्थ का निश्चायक ज्ञान किसी की अपेक्षा नहीं करता, अतः साधकतम होने से वही प्रमाण है। अविसंवादिता भी उसी के अधीन बौद्धों के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में अविसंवाद निर्धारित नहीं है, क्योंकि उसमें अविसंवाद का निर्धारण करने पर विरोध उत्पन्न होता है और अविसंवादिता का निर्णय हुए बिना निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का प्रामाण्य सिद्ध नहीं है। अविसंवाद एवं प्रामाण्य में व्याप्यव्यापक भाव है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में अविसंवादिता सिद्ध नहीं होती है। चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयों के व्यवसायात्मक ज्ञान में प्रामाण्य है,क्योंकि उसमें अविसंवाद संभव है। द्विचन्द्रादि ज्ञानों में विसंवाद इसलिए है ,क्योंकि उसमें व्यवसायात्मकता ही नहीं है। विधूतबाध या बाधारहित अवसाय ही व्यवसाय है । द्विचन्द्रादि ज्ञान सबाध है , किन्तु जब इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान बाधारहित अवसायात्मक होता है तब उसके प्रामाण्य में कोई बाधा नहीं है ।२७२ बौद्ध - विकल्प यथार्थ नहीं हैं। समस्त विकल्प वितथ अर्थात् मिथ्या होते हैं। वादिराज-बौद्ध कथन असंगत है ,क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण है. इसका अवस्थापन बौद्धों ने वितथ विकल्प रूप अनुमान से किया है । यथा प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है, अर्थसामर्थ्य के कारण, उत्तरार्थक्षण के समान । प्रत्यक्ष में कल्पना नहीं है, क्योंकि उपलब्धिलक्षण प्राप्त कल्पनाएं उसमें उपलब्ध नहीं होती हैं, भूतल में घट के समान ।२७३ बौद्ध- प्रत्यक्ष का प्रामाण्य स्वतः व्यवस्थित है । जैसा कि कहा है- 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति २७४ अर्थात् कल्पना रहित प्रत्यक्ष-प्रमाण प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है। २७१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख २७२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख २७३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख २७४. प्रमाणवार्तिक,२.१२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy