________________
प्रत्यक्ष-प्रमाण
वादिराज - यदि ऐसा है तो अनुमान से क्या प्रयोजन है ? व्यामोह (समारोप) का विच्छेद करने के लिए अनुमान को स्वीकार करते हो, तो व्यामोह के रहते हुए भी प्रत्यक्ष को व्यवस्थित कैसे माना जा सकता है ? अतः प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष के प्रामाण्य का ज्ञान नहीं होता और उसके विकल्प से भी प्रत्यक्ष के प्रामाण्य का निश्चय नहीं होता, क्योंकि वह विकल्प प्रत्यक्षपूर्वक होता है अतः विकल्प का प्रामाण्य प्रत्यक्ष से एवं प्रत्यक्ष का प्रामाण्य विकल्प से होने के कारण परस्पराश्रय दोष उत्पन्न होता है ।
१६३
अतः विकल्प बल से ही विकल्पों की अयथार्थता एवं प्रत्यक्ष की परमार्थता का व्यवस्थापन किया जाना चाहिए तथा विकल्पों को पूर्ण रूप से वितथार्थ (मिथ्या) नहीं मानना चाहिए । इस प्रकार नीलादि विकल्प भी परमार्थ सिद्ध होता है, क्योंकि उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है और उसके प्रामाण्य का निश्चय करने में वही साधकतम है । अविसंवादिता का नियम भी उसमें है । निर्विकल्प में बाधा है, वह अपने प्रामाण्य में विकल्प की अपेक्षा रखता है तथा विसंवादी भी है अतः वह प्रत्यक्षाभास है।
I
, २७५
इस प्रकार वादिराज ने निश्चयात्मकता के अभाव में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को अप्रमाण सिद्ध किया है तथा बौद्धों के समस्त विकल्पों को वितथ मानने के सिद्धान्त का खण्डन किया है। वादिराज प्रतिपादित किया है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का व्यवस्थापन भी विकल्पात्मक ज्ञान रूप अनुमान के अभाव में सिद्ध नहीं है। इसलिए समस्त विकल्पों को वितथ नहीं कहा जा सकता । निर्विकल्पक ज्ञान में अविसंवाद भी निर्धारित नहीं है तथा वह दृष्ट अर्थ में प्रवर्तक भी नहीं होता है, इसलिए निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, सविकल्प प्रत्यक्ष निश्चयात्मक, संवादात्मक एवं प्रवर्तक होने से 'प्रमाण' होता है। वादिराज ने विधूतबाध अवसाय को व्यवसाय कहकर उसमें संशयविपर्ययादि प्रत्यक्षाभासों का भी निराकरण कर दिया है।
अभयदेवसूरि
सिद्धसेन विरचित सन्मतितर्क के टीकाग्रंथ तत्त्बोधविधायिनी में अभयदेवसूरि ने बौद्धों का वैयाकरणों एवं नैयायिकों के साथ वाद प्रस्तुत कर बौद्ध प्रत्यक्ष का प्रामाणिक उपस्थापन किया है। तदनन्तर उसका निरसन कर जैनमत के अनुरूप सविकल्पात्मक, विशदात्मक एवं स्वपर-निश्चयात्मक प्रत्यक्ष का प्रतिष्ठापन किया है। बौद्ध प्रत्यक्ष के सम्यक् अवगमनार्थ यहाँ वैयाकरणों एवं नैयायिकों के साथ उनका वाद संक्षेप में प्रस्तुत है ।
वैयाकरण- वाक् के स्पर्श से रहित कोई ज्ञान नहीं है। समस्त ज्ञान शब्द से अनुविद्ध प्रतिभासित होता है| २७६ 'यदि वाक् (शब्द) के संस्पर्श से रहित कोई ज्ञान है तो वह प्रकाशक नहीं हो सकता । ज्ञान में वाता शाश्वत है तथा वह प्रत्यवमर्शिनी है। उसके अभाव में ज्ञान का कोई रूप शेष नहीं रहता है, २७५. द्रष्टव्य, परिशिष्ट- ख
२७६. न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य: शब्दानुगमादृते ।
अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते । वाक्यपदीय, १.१२३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org