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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण हो सकता । जो ज्ञान व्यवसायात्मक नहीं होता, वह उत्तरकाल में स्मरण को उत्पन्न नहीं करता है, किन्तु गाय का प्रत्यक्ष ज्ञान करने वाले को उत्तरकाल में गाय का स्मरण होता है, इसलिए प्रत्यक्षज्ञान व्यवसायात्मक है ।२६९ विद्यानन्द कृत बौद्ध प्रत्यक्ष की आलोचना से ज्ञात होता है कि विद्यानन्द भी अकलङ्क की भांति प्रत्यक्ष को विशदात्मक एवं निश्चयात्मक मानते हैं। प्रत्यक्ष में अभिलापसंसर्गयोग्यता की चर्चा विद्यानन्द ने नहीं की है ,किन्तु उन्होंने प्रत्यक्ष का अभिलापयुक्त अथवा शब्द-योजना से युक्त होना आवश्यक नहीं माना है । विद्यानन्द ने अनेकान्तदृष्टि का उपयोग कर प्रत्यक्ष को स्वपरका निश्चयात्मक होने के कारण कथञ्चित् सविकल्पक तथा शब्दयोजना के अभाव में कथञ्चित् निर्विकल्पक प्रतिपादित किया है। शब्दयोजना के अभाव में भी निश्चयात्मकता को स्वीकार करना विद्यानन्द की अपनी विशेषता है । वे निश्चयात्मकता को ही सविकल्पकता मानते हैं ।प्रत्यक्ष का विषय जात्याद्यात्मक प्रतिपादित करके भी विद्यानन्द ने प्रत्यक्ष की सविकल्पता सिद्ध की है। उन्होंने बौद्ध सम्मत मानस प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक होने के कारण तथा योगिप्रत्यक्ष को धर्मोपदेशता के कारण कथञ्चित् सविकल्पक सिद्ध किया है । निर्विकल्पज्ञान से सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति को विद्यानन्द संभव नहीं मानते हैं तथा चित्त की विकल्परहित अवस्था में भी प्रत्यक्ष को स्वपरव्यवसायात्मक अंगीकार करते हैं । विद्यानन्द ने भी प्रत्यक्ष के व्यवसायात्मक ज्ञान की कसौटी स्मृति को माना है । अकलङ्क के समान विद्यानन्द ने भी अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव और अर्थित्व को सविकल्पात्मक ज्ञान में ही संभव बतलाया है,निर्विकल्पक में नहीं। वादिराज ___ अकलङ्करचित न्यायविनिश्चय के विवरणकार वादिराज बौद्धों की आलोचना करते हुए कहते हैं कि बौद्ध प्रत्यक्ष में दृश्य एवं प्राप्य क्षण भिन्न हैं,अतः दृश्य क्षण का प्रत्यक्ष अज्ञात प्राप्यक्षण में प्रवर्तक नहीं हो सकता । यदि दृश्य एवं प्राप्य क्षण वस्तुत : एक हैं तो जगत् को क्षणभंगी नहीं कहा जा सकता । यदि संवृतिसत् से ये दोनों क्षण एक हैं तो प्रत्यक्ष अविकल्पक सिद्ध नहीं होता है ।२७० बौद्ध- वर्तमान दृश्य क्षण ही प्रत्यक्ष का विषय होता है और वह प्रवर्तक होता है। उसकी अधिगति के संतोष मात्र से ही उसका प्रवर्तक होना उपपन्न है । प्राप्य क्षण में उसकी उपलब्धि तो व्यवहार करने वाले पुरुषों के अभिप्राय से कही गयी है,परमार्थत : नहीं। वादिराज-इस प्रकार तो क्षण-भंग आदि की सिद्धि में भी उसी वर्तमान क्षण को विषय करने वाले प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना चाहिये । क्षणभंग-सिद्धि के लिए अनुमान प्रमाण का आश्रय लेना उपयुक्त नहीं है ,क्योंकि अनुमान प्रमाण भी व्यवहाराश्रित है,पारमार्थिक नहीं । यदि समारोप का व्यवच्छेद कर निश्चय ज्ञान कराने हेतु अनुमान -प्रमाण में प्रवृत्त होना स्वीकार किया जाता है तो नीलादि के ज्ञान २६९. द्रष्टव्य प्रमाणपरीक्षा, पृ०१०-१२ २७०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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