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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा तक उसमें व्यावृत्ति भेद भी असंभव है । नीलस्वलक्षण जिस स्वभाव से अनील से व्यावृत्त है उसी स्वभाव से यदि अक्षणिक से व्यावृत्त हो तो अनील एवं अक्षणिक दोनों एक हो जायेगें। यदि नीलस्वलक्षण अनील से अन्य स्वभाव से व्यावृत्त है तथा अक्षणिक से अन्य स्वभाव से तो नील स्वलक्षण में स्वभाव भेद सिद्ध होता है, जिसका निराकरण संभव नहीं है । यदि वस्तु में स्वभाव भेद भी तदन्य स्वभाव व्यावृत्ति से कल्पित है तो कल्पित स्वभावान्तर की परिकल्पना से अनवस्था दोष आता है । यथा नील स्वलक्षण में स्वभाव भेद अनील - अस्वभाव व्यावृत्ति और अक्षणिक अस्वभावव्यावृत्ति से कल्पित है, वास्तविक नहीं है, तो इस प्रकार अनीलस्वभाव की अन्यव्यावृत्ति को भी अन्यव्यावृत्ति रूप अन्य स्वभाव से कल्पित करना पड़ेगा और उस अन्यव्यावृत्ति को भी तदन्यव्यावृत्ति रूप अन्य स्वभाव मानना होगा, फलस्वरूप किसी भी वस्तु के ज्ञान में व्यवस्था नहीं हो सकेगी। २६७ १६० बौद्ध वस्तु शब्द - विकल्पों का विषय नहीं होती। क्योंकि शब्द विकल्पों का विषय अन्यव्यावृत्ति है २६८ जो अनादिकालीन विद्यमान अविद्या के कारण कल्पित होती है और कल्पित होने से वह विचारणीय नहीं है । यदि उसे विचारणीय माना जाय तो वह अवस्तु न रहकर वस्तु हो जायेगी । विद्यानन्द - यह बौद्ध कथन भी सम्यक् नही है, क्योंकि इस प्रकार दर्शन (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष) का विषय भी अवस्तु रूप सिद्ध होगा । अतः वह भी शब्द विकल्प के विषय की भांति विचार योग्य नहीं है। नीलस्वलक्षण सुगत एवं अन्य लोगों के दर्शन का विषय बनता है तो क्या एक ही स्वभाव से बनता है या नाना स्वभावों से ? यदि एक ही स्वभाव से दर्शन का विषय है तो जो जब सुगत के लिए दृश्य होता है वही अन्य लोगों के लिए दृश्य हो जायेगा, फलतः सम्पूर्ण जगत् के लोग सुगत हो जायेगें । जो अन्य लोगों का दृश्य है वही यदि सुगत का भी दृश्य है तो समस्त सुगत अन्य लोगों की भांति हो जायेगें । इस प्रकार यह अखिल जगत् सुगत रहित हो जायेगा । यदि इस दोष से बचने के लिए सुगत एवं अन्य संसारी जनों के दृश्य (ज्ञेय अर्थ) को नाना स्वभाव वाला मानते हो तो नीलस्वलक्षण रूप दृश्य में स्वभावभेद का प्रसंग आ जाएगा, किन्तु दृश्यरूप नीलस्वलक्षण में नाना ज्ञेयस्वभाव को कल्पित नहीं माना जा सकता, क्योंकि उन्हें कल्पित मानने पर नीलस्वरूप भी कल्पित हो जायेगा । जबकि वह बौद्ध मत में परमार्थसत् है । तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष-ज्ञान की अव्यवसायात्मकता प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है। अनुमान से भी इसकी अव्यवसायात्मकता को सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि गोदर्शन के समय जिस प्रकार अश्व का विकल्प होता है उसी प्रकार गाय का दर्शन भी व्यवसायात्मक होता है। गाय का दर्शन व्यवसायात्मक नहीं हो तो उत्तरकाल में उससे गाय का स्मरण, जो कि व्यवसायात्मक है, कदापि नहीं २६७. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, पृ० ९-१० २६८. तुलनीय श्रुतौ सम्बध्यतेऽ पोहो नैतद्वस्तुनि युज्यते । - प्रमाणवार्तिक, २.१७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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