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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण विद्यानन्द – बौद्ध मान्यता उपयुक्त नहीं है, क्योंकि भूयोदर्शन रूप अभ्यास का क्षणक्षयादि में भी सद्भाव देखा जाता है। यदि अभ्यास का अर्थ 'पुनः पुनः विकल्प को उत्पन्न करना " लिया जाता है । तो वह विवादास्पद है, क्योंकि जो दर्शन स्वयं निर्विकल्पक है वह विकल्प (निश्चय) को उत्पन्न नहीं कर सकता है । बुद्धिपाटव तो नीलादि एवं क्षणिकता आदि में समान है, क्योंकि निर्विकल्पक दर्शन को बौद्धों द्वारा निरंश माना गया है। इन्द्रियज्ञान के निरंश होने से नीलादि में पटुता एवं क्षणिकत्व आदि में अपटुता संभव नहीं है, अन्यथा अंशभेद मानने होंगे ।" वासना रूप कर्म के कारण इन्द्रियबुद्धि पटुता और अपटुता दोनों संभव हैं” ऐसा कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि वासना रूप कर्म का सद्भाव एवं असद्भाव दोनों विरुद्ध धर्म होने से वे एक निरंश इन्द्रियज्ञान में सम्भव नहीं हैं। अर्थित्व का अर्थ यदि जिज्ञासा रूप है तो नीलादि के समान ही वह क्षणिकता में भी है । यदि अर्थित्व का अर्थ अभिलषितत्व रूप है तो वह व्यवसाय उत्पन्न करने का अनिवार्य कारण नहीं है, क्योंकि किसी उदासीन पुरुष को अनभिलषित वस्तु में भी स्मरण (व्यवसाय) होता हुआ देखा जाता है अतः अर्थित्व भी संस्कार एवं स्मरण का नियामक नहीं है । १५९ इस प्रकार निरंश ज्ञानवादी बौद्ध मत में अभ्यास आदि से कहीं भी संस्कारोत्पत्ति घटित नहीं होती है, किन्तु बाह्य घटादि एवं आभ्यन्तर ज्ञान इन दोनों को अनेकान्तात्मक, स्वीकार करने वाले स्याद्वादियों के मत में संस्कार-स्मरण आदि संभव हैं। जैनमत में एक ज्ञान को सर्वथा व्यवसाय (अवाय) या सर्वथा अव्यवसाय (अनवाय) रूप में निरूपित नहीं किया गया है। इसी प्रकार उसे सर्वथा संस्कार (धारणा) या असंस्कार (धारणेतर) भी निरूपित नहीं किया गया है, तथा उसे सर्वथा स्मरण या सर्वथा अस्मरण रूप में भी प्रतिपादित नहीं किया गया है। यहां ज्ञान एवं ज्ञेय में एक एवं अनेक की दृष्टि से कथञ्चित् भेद है । ,२६६ बौद्ध - दर्शन (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष) को भी हमने व्यावृत्तिभेद से भिन्न स्वीकार किया है, अतः कोई दोष नहीं आता है । यथा नील का अर्थ है अनील से व्यावृत्ति, क्षणिकता का अर्थ है अक्षणिकता से व्यावृत्ति । अनील व्यावृत्ति में नील का व्यवसाय नील की वासना के जागृत होने से उत्पन्न होता है। किन्तु अक्षणिक व्यावृत्ति में क्षणिक की वासना का उद्भव नहीं होने से क्षणिक का प्रत्यक्ष द्वारा व्यवसाय नहीं होता। अनील की व्यावृत्ति एवं अक्षणिक की व्यावृत्ति में अभेद संभव नहीं है, अन्यथा व्यावर्त्यमान अनीलत्व एवं अक्षणिकत्व एक हो जायेंगे । व्यावृत्तियों के भिन्न होने से वस्तु में भेद नहीं होता, क्योंकि वस्तु निरंश है। यदि वस्तु को भिन्न-भिन्न मानेंगे तो अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। विद्यानन्द - बौद्धों का यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि वस्तु में जब तक स्वभाव नहीं होता है तब २६६. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, पृ० ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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