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________________ बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा स्वविषयोपदर्शकता के अभाव में दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान) न प्रवर्तक हो सकता है औरन अर्थप्रापक । प्रापकता के अभाव में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अविसंवादी नहीं होता, अविसंवादित्व के अभाव में उसे प्रमाण या सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जा सकता । २६२ १५८ बौद्ध कहते हैं कि अर्थ सामर्थ्य से उत्पत्ति एवं अर्थाकारता ही दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान) की स्वविषयोपदर्शकता है तथा वह समस्त प्रत्यक्ष ज्ञानों के अव्यवसायात्मक होने पर भी संभव है, अतः प्रत्यक्ष अर्थसामर्थ्य से उत्पन्न होने के कारण तथा अर्थाकार होने के कारण अर्थ में प्रवर्तक एवं अर्थप्रापक होता है । २६३ अर्थप्रापक होने से वह अविसंवादी होता है। निर्विकल्पक ज्ञान क्षणक्षयादि का उपदर्शक क्यों नहीं ? - विद्यानन्द उपर्युक्त मंतव्य का खण्डन करते हुए कहते हैं कि फिर तो निर्विकल्पक ज्ञान को क्षणक्षयादि का भी उपदर्शक होना चाहिए । यदि अक्षणिकता आदि के समारोप का प्रवेश होने से अयोगी ज्ञाता के लिए निर्विकल्पक ज्ञान क्षण-क्षयादि का उपदर्शक नहीं होता, किन्तु योगी ज्ञान में समारोप संभव नहीं है इसलिए उसका निर्विकल्पक ज्ञान क्षणक्षयादि का भी उपदर्शक होता है, ऐसा कहा जाय तो भी यह बुद्धिमान् पुरुषों के लिए संतोषप्रद समाधान नहीं है; क्योंकि अयोगी ज्ञाता को नील आदि में भी अनील आदि का विपरीत समारोप हो सकता है, तब उन्हें क्षणिकता आदि के समान नीलादि का भी दर्शन नहीं हो सकेगा। अन्यथा नीलादि-वस्तु में नीलादित्व और क्षणिकतादि विरुद्ध धर्मों का समावेश होने से दर्शन में भेद हो जायेगा । जब दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान) एक एवं भेदरहित हो तो यह नहीं कहा जा सकता है कि वह नीलादि में भ्रमाक्रान्त नहीं है तथा क्षणिकतादि में भ्रमाकान्त है। जो जिस विषय में विपरीत समारोप का विरोधी है वह उस विषय में निश्चयात्मक है, यथा अनुमेय अर्थ में अनुमान ज्ञान । इसी प्रकार प्रत्यक्ष भी अपने विषय में विपरीत समारोप का विरोधी होने से निश्चयात्मक है । २६४ बौद्ध एवं विद्यानन्द में उत्तर- प्रत्युत्तर - आगे बौद्ध एवं विद्यानन्द के उत्तर- प्रत्युत्तर संक्षेपतः इस प्रकार हैं बौद्ध- अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव और अर्थित्व से निर्विकल्पक दर्शन में भी नीलादि पदार्थ का संस्कार एवं स्मरण उत्पन्न हो जाता है २६५ क्षणिकादि में अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव एवं अर्थित्व का अभाव होने से संस्कार एवं उसका स्मरण नहीं होता । व्यवसायात्मक ज्ञान में अभ्यास, प्रकरण आदि से ही संस्कार एवं स्मरण सम्भव हैं, उनके अभाव में नहीं। अतः प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक स्वीकार करने वालों को भी अभ्यास आदि चारों का नियमतः स्वीकार करना चाहिए । २६२. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, पृ० ६-७ २६३. द्रष्टव्य- (१) तद्वशाद् अर्थप्रतीतिसिद्धेरिति - न्यायबिन्दु १.२१ (२) सारूप्यं ज्ञानस्य व्यवस्थापनहेतु: ।-न्यायबिन्दुटीका, १.२१५.८९ २६४. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, पृ० ७-८ २६५. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, १२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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