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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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स्वविषयोपदर्शक प्रतिपादित किर जाय तो भी उपयुक्त नहीं है ,क्योंकि दर्शन का विषय-सामान्य तो अन्यापोह लक्षण रूप होने से अवस्तु है । अवर का व्यवसाय करने वाले को वस्तु का उपदर्शक मानना विरुद्ध है ।२६०
दृश्य एवं सामान्य में एकत्व का अE वसाय करने से व्यवसाय (विकल्प)वस्तु का उपदर्शक ही होता है ,यह मान्यता भी मिथ्या है ,क्योंकि उके एकत्व का अध्यवसाय असंभव है । इस संबंध में अनेक प्रश्न उठते हैं, यथा दृश्य एवं सामान्य के एकत्व का अध्यवसाय दर्शन करता है या उसके अनन्तर उत्पन्न व्यवसाय (विकल्प)? अथवा कोई अन्य ज्ञान ? दर्शन तो दृश्य एवं सामान्य के एकत्व का अध्यवसाय कर नहीं सकता ,क्योंकि वह विकल्प्य (सामान्य) को विषय नहीं करता है । उसका पृष्ठभावी विकल्प (व्यवसाय) भी दोनों के एकत्व का अध्यवसाय नहीं कर सकता ,क्योंकि वह दृश्यक्षण को विषय नहीं करता है । इन दोनों को विषय करने वाले ज्ञानान्तर की कल्पना की जाय तो यह प्रश्न उठता है कि वह निर्विकल्पक है या सविकल्पक? निर्विकल्पक ज्ञान दृश्य एवं विकल्प्य (सामान्य) के विरुद्ध होने से उक्त दोनों को विषय नहीं कर सकता। विकल्पात्मक ज्ञान भी दोनों को विषय नहीं कर सकता,क्योंकि उसका विषय मात्र सामान्य लक्षण है, दृश्य नहीं । दृश्य (स्वलक्षण) एवं विकल्प्य (सामान्यलक्षण) दोनों को विषय नहीं करने वाला ज्ञान भी उनके एकत्व का अध्यवसाय नहीं कर सकता,क्योंकि जो जिसको विषय नहीं बनाता है वह उसके एकत्व का अध्यवसाय नहीं कर सकता,यथा रस का ज्ञान स्पर्श एवं रूप दोनों को विषय नहीं करता है ,अत : एकत्व का अध्यवसाय भी नहीं कर सकता । इस प्रकार दृश्य एवं विकल्प्य के एकत्व का अध्यवसाय नहीं करने के कारण विकल्प को स्वलक्षण वस्तु का उपदर्शक नहीं कहा जा सकता।
यदि विकल्प का जनक होने...रण दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान) को अपने विषय रूप वस्तु का उपदर्शक कहा जाय तो भी समीचीन नहीं है ,क्योंकि समस्त कल्पनाओं का नाश हो जाने पर योगिप्रत्यक्ष में निर्विकल्पक ज्ञान विकल्प को उत्पन्न नहीं करता,अत वहां निर्विकल्पक ज्ञान को वस्तु का उपदर्शक कहने में विरोध आता है। इसी प्रकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी वस्तु के स्वरूप का उपदर्शक नहीं होता है क्योंकि वह विकल्प को उत्पन्न करने मे समर्थ नहीं है । अतः स्वरूप का ज्ञान स्वतःहोता है '२६१ यह कथन भी सम्यक् रूपेण स्थापित नहीं हो पाता है।
यदि दर्शन के पृष्ठभावी विकल्प को स्वसंवेदन के बल से सिद्ध माना जाता है तो उसका स्वसंवेदन रूप प्रामाण्य किस प्रकार है ? यदि स्वरूप के उपदर्शन मात्र से ही विकल्प प्रमाण है तो स्वर्ग प्रापण शक्ति आदि में भी प्रमाणता प्राप्त होती है जो बौद्धों को इष्ट नहीं है । विकल्प के अप्रमाण होने पर उससे ही उसकी व्यवसाय सिद्धि नहीं हो सकती । व्यवसाय सिद्धि नहीं होने पर “व्यवसाय को उत्पत्र करके दर्शन अपने विषय का उपदर्शक होता है, यह बौद्ध कथन असिद्ध हो जाता है। २६०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २६१. स्वरूपस्य स्वतो गतिः ।-प्रमाणवार्तिक, १.६
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