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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
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धर्मकीर्ति ने विकल्पों से अनुविद्ध ज्ञान में स्फुट प्रतिभास का निषेध किया है। इसका अर्थ है कि धर्मकीर्ति के मत में निर्विकल्पक ज्ञान स्फुट या स्पष्ट होता है और अस्पष्ट प्रतीति कल्पना होती है । किन्तु अस्पष्ट प्रतीति को कल्पना कहने से जैनदार्शनिक प्रत्यक्ष का कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जैनदर्शन में भी स्पष्टता या विशदता को प्रत्यक्ष का लक्षण कहा गया है अतः प्रत्यक्ष में अस्पष्ट प्रतीति रूप कल्पना का अपोढ होना विद्यानन्द को भी अभीष्ट है। विद्यानन्द कहते हैं कि अस्पष्ट प्रतीति के अर्थ में प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ कहना सिद्ध साधन है, क्योंकि प्रत्यक्ष स्पष्ट होता है अतः उसमें अवैशद्य का व्यवच्छेद करना आवश्यक है। अस्पष्ट प्रतिभास रूप प्रतीति का निराकरण किये बिना प्रत्यक्ष एवं अनुमान में कोई भेद नहीं रह पाता है। २५१
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प्रत्यक्ष व्यवसायात्मक होता है- कल्पना का अर्थ स्व एवं अर्थ की निश्चिति करने पर विद्यानन्द उसे प्रत्यक्ष में आवश्यक मानते हैं। ऐसी कल्पना का वे प्रत्यक्ष-लक्षण से परिहार नहीं करते, क्योंकि प्रत्यक्ष स्व एवं अर्थ का निश्चायक होता है। अतः प्रत्यक्ष का उससे रहित होना असंभव है । विद्यानन्द ने बौद्धमत में भी कल्पनापोढ लक्षण को कदाचित् अनुपपन्न सिद्ध करते हुए कहा है कि बौद्धों को भी मानस- प्रत्यक्ष का व्यवसायात्मक होना अभीष्ट है। मानस - प्रत्यक्ष इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के अनन्तरउत्पन्न होता है तथा इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत स्वलक्षण को ग्रहण करता है, इसलिए उसे व्यवसायात्मक माना जा सकता है । मानसप्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक स्वीकार करते हुए व्यवसायात्मकता का प्रत्यक्ष में अपोह करना युक्तिसंगत नहीं है। २५२
बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने समस्त विकल्पों का संहार होने की अवस्था में प्रत्यक्ष को प्रत्यात्मवेद्य एवं निर्विकल्पक माना है। जैनदार्शनिक अकलङ्क का मन्तव्य है कि विकल्प रहित स्थिरचित्त वाले पुरुष को भी चक्षु से स्थूल आकारक वस्तु दिखाई देती है, स्वलक्षण वस्तु नहीं, अतः प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक नहीं कहा जा सकता। विद्यानन्द कहते हैं कि चित्त का सब ओर से संहार करने पर भी पुरुष को चक्षु से रूप एवं स्व का स्पष्ट व्यवसाय होता है। विद्यानन्द के अनुसार चित्त की विकल्परहित अवस्था में भी स्व एवं पर का निश्चायक ज्ञान विद्यमान रहता है। यह निश्चायकज्ञान स्वपर व्यवसायात्मकता से रहित नहीं होता। इसलिए प्रत्यक्षानुभूति के कारण प्रत्यक्ष को स्वपर व्यवसायात्मक रूप कल्पना से रहित नहीं कहा जा सकता ।
प्रत्यक्ष की कल्पनापोढता अनुमान से भी सिद्ध नहीं- अनुमान से भी प्रत्यक्ष कल्पनापोढ सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि पुनः विकल्प करते हुए पुरुष को “मुझे स्व एवं अर्थ का निश्चय हुआ था अथवा मैंने घटादि पदार्थ को जाना था ” इस प्रकार का ज्ञान होता है। निश्चयात्मक ज्ञान हुए बिना उसकी एवंविध स्मृति नहीं हो सकती । इन्द्रियप्रत्यक्ष से जिस प्रकार बौद्धों ने वस्तु के क्षणिकत्व का ज्ञान स्वीकार नहीं
२५०. न विकल्पानुबद्धस्यास्ति स्फुटार्थावभासिता । - प्रमाणवार्तिक २.२८३
२५१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २५२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
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